इस्लामिक मान्यता कहती है कि अल्लाह की ओर से एक दिन इब्राहीम को मक्का जाने और वहां जाकर एक उपासना-स्थल बनाने का आदेश मिला. इधर मक्का में इस्माइल तरुणाई की अवस्था में पहुँच चुके थे और उनकी माता का इंतकाल हो चुका था.
कुरान के सूरह बकरह की आयतों और विशेषकर बुखारी शरीफ़ में बाप और बेटे यानि इब्राहीम और इस्माइल द्वारा काबे की दीवार उठाने का वर्णन आता है. बकौल कुरान ये काबा दुनिया में अल्लाह की इबादत के लिये बनाया गया पहला घर था पर तौरात जिसमें इब्राहीम और आले-इब्राहीम का बड़ा विस्तार से वर्णन है वहां इसका कोई जिक्र नहीं है.
सहीह बुखारी में आता है कि इस्माइल पत्थर ला-लाकर देते थे और इब्राहीम उससे काबे की दीवार उठाते थे. इब्राहीम दीवार भी उठाते जाते थे और फिर थोड़ा पीछे हटकर एक पत्थर पर खड़े होकर ये देखते भी थे कि दीवार ठीक बनी है कि नहीं.
इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार इब्राहीम जिस पत्थर पर खड़े हुए थे उस पत्थर पर उनके क़दमों के निशान बन गये थे, ये पत्थर आज भी काबा के अंदर रखा हुआ है और इसे मक़ामे-इब्राहीम के नाम से जाना जाता है.
इस पत्थर पर जो पैरों के निशान हैं उनमें से एक कदम की गहराई 9 सेंटीमीटर तथा दूसरे की 10 सेंटीमीटर है, इस कदम निशान की लंबाई बाईस सेंटीमीटर तथा चौड़ाई ग्यारह सेंटीमीटर है.
कुरआन-मजीद में ‘मक़ामे-इब्राहीम’ का जिक्र काफ़ी एहतराम से करते हुए सूरह बकरह की 124वीं आयत में कहा गया है, ‘वत्त्खाजू मिम मुक़ामे इब्राहीम मुसल्ला’ यानि ‘मक़ामे-इब्राहीम’ को नमाज़ की जगह बनाओ.
उस कदम निशान को लेकर कई विद्वानों में ये मान्यता ये भी है कि ये चरण-चिन्ह दरअसल भगवान विष्णु के हैं. इसके प्रमाण में वो प्राचीन हिन्दू ग्रंथ ‘हरिहरक्षेत्र महात्म्य’ से एक उद्धरण देते हैं.
इस ग्रन्थ के सातवें अध्याय के छठे श्लोक में कहा गया है –
एकं पदं गयायांतु मक्कायांतु द्वितीयकम
तृतीयं स्थापितं दिव्यं मुक्त्यै शुक्लस्य सन्निधौ.
अर्थात्, श्रीहरि विष्णु का एक पद-चिन्ह गया में, दूसरा मक्का में तथा तीसरा शुक्ल तीर्थ के समीप स्थापित है.
श्लोक में विष्णु-पद चिन्ह वाले जिस गया शहर का नाम सबसे पहले आया है वो बिहार में स्थित एक अति प्राचीन शहर है जो फल्गु नदी के किनारे अवस्थित है. इसी शहर में विष्णुपद नाम से एक मंदिर भी है जिसका उपरोक्त श्लोक में वर्णन आया है. मंदिर में पत्थरों पर भगवान विष्णु के चरण चिन्ह हैं.
कहते हैं कि इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने गयासुर नाम के असुर की छाती पर पैर रखकर उसका वध किया था. श्लोक में आता है कि विष्णु का दूसरा चरण चिन्ह मक्का में है. आश्चर्य की बात ये है कि मक्का में भी गया के विष्णु-पद मंदिर की तरह ही चरण-चिन्ह मौजूद है जिसे मक़ामे-इब्राहीम के नाम से जाना जाता है.
हैरत की बात ये भी है कि गया और मक्का दोनों ही शहर कर्क रेखा के करीब स्थित हैं और जिस तरह गया में विष्णु का पद-चिन्ह चाँदी की अष्टकोणीय वेदी पर निर्मित है उसी तरह मक्का का पद-चिन्ह भी धातु के अष्टकोण वाले कुब्बानुमा खोल के अंदर रखा गया है.
गया की तरह ही मक्का की तीर्थ यात्रा भी प्राचीन काल से ही पुण्यदायी मानी जाती रही है. हिन्दू परम्परा में यह मान्यता है कि कुल दस दिशायें होतीं हैं, एक ऊपर, एक नीचे तथा बाकी आठ दिशायें. इन दिशाओं के अधिपति को दिग्पाल कहते हैं.
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मान्यता है कि ब्रह्मा ने आठ दिग्पालों की सृष्टि की और अपनी कन्याओं को बुलाकर प्रत्येक को एक-एक कन्या प्रदान कर दी. इसके बाद वे सभी उन कन्याओं के साथ अपनी दिशाओं में चले गए.
एक दिग्पाल आकाश की ओर तथा दूसरे नीचे की ओर चले गये बाकी बचे आठ दिग्पालों के नाम पुराणों में दिशाओं के क्रम से निम्नांकित है –
(1) पूर्व के इंद्र, (2) दक्षिणपूर्व के अग्नि, (3) दक्षिण के यम, (4) दक्षिण पश्चिम के सूर्य, (5) पश्चिम के वरुण, (6) पश्चिमोत्तर के वायु, (7) उत्तर के कुबेर और (8) उत्तरपूर्व के सोम.
इसलिये मक्का के युगल चरण-चिन्ह का अष्टकोणीय कुब्बा में रखा जाना तथा गया स्थित विष्णु पद-चिन्ह का अष्टकोणीय वेदी पर बने होने का कहीं न कहीं अंतरसंबंध अवश्य है जिसकी तहकीक आवश्यक है.
वैसे मक़ामे-इब्राहीम से जुड़ी कई पद्धतियां हैं जो हिन्दू परंपराओं के समानार्थी है. मसलन, हमारे शास्त्रों में कहा गया है,
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णो पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते।।
अर्थात्, भगवान विष्णु के चरणों का अमृतरूपी जल सभी तरह के पापों का नाश करने वाला है. यह औषधि के समान है. जो चरणामृत का सेवन करता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता है.
यही कारण है कि हिन्दू मंदिरों में जब भी कोई जाता है तो वहां पुजारी उसे चरणामृत पीने को देते हैं. इस परंपरा का अनुपालन भारत के सभी मंदिरों में तो होता ही है काबा में भी होता है.
‘हरिहरक्षेत्र महात्म्य’ के उपरोक्त श्लोक के अनुसार वहां विष्णु-चरण चिन्ह हैं और आश्चर्यजनक रूप से वहां भी विष्णु-चरण पर चढ़ाये जल का पान किया जाता रहा है.
हालांकि कुरान-मजीद में मकामे-इब्राहीम को लेकर केवल इतना हुक्म है कि मकामे-इब्राहीम के मुकाम को मुसल्ला यानि नमाज़ की जगह बनाओ पर इस्लामी तारीख से साबित है कि मक़ामे-इब्राहीम के पास भी यही रिवाज सदियों से अमल में लाये जाते थे जो विशुद्ध हिन्दू पद्धति हैं.
उदाहरण के लिये अल्लामा कुतुबुद्दीन जो नौवीं सदी हिजरी में हुए इस्लामिक विद्वान् थे, ने अपने किताब ‘अलमुल-अलम’ के सफा 429 में लिखा है कि मकामे-इब्राहीम की जियारत के लिये जाने वाला इन्सान जब उसका जियारत कर लेता है उसके बाद पैर-मुबारक के निशानात में पानी डालकर तबर्रुक (प्रसाद) के तौर पर पीता है.
वो ये भी लिखते हैं कि खलीफा मेहदी अब्बासी जब हिजरी सन 160 में हज करने गये थे तब एक दिन दोपहर के वक्त अब्दुल्ला बिन उस्मान बिन इब्राहीम नाम का एक शख्स उनके पास आया और उनसे कहने लगा कि आज मैं आपके लिये ऐसा तोहफा लाया हूँ जो आज से पहले किसी को पेश नहीं किया गया और ये कहते हुए उसने उन्हें मकामे-इब्राहीम का पत्थर भेंट किया.
खलीफा ने उस पर आबे-जमजम डालकर उस पानी को पिया और फिर उसे वापस मकामे-इब्राहीम की जगह पर लगवा दिया.
अल्लामा कुतुबुद्दीन साहब तो अपनी किताब में ये तक लिखते हैं कि यह रिवाज यानि मकामे-इब्राहीम के पत्थर में जायरीन को आबे-जमजम डालकर पिलाये जाने का रिवाज उनके जमाने तक चल रहा था.
इतना ही नहीं इस्लामिक तारीख से तो ये तक साबित है कि इस कदम-निशान को छुआ और चूमा जाता है पर चूँकि छूने और चूमने की वजह से इस पत्थर से अँगुलियों के निशान मिटने लगे इसलिए इस प्रथा पर रोक लगा दी गई.
जारी….
अरब का इतिहास भाग 11 के बाद कब आयेगा?