अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया जा रहा है. दिवस मनाने से होता कुछ नहीं है. मदर्स डे, फादर्स डे, किस डे, हग डे, एनवायरनमेंट डे, अर्थ डे…. बहुत सारे दिवस हैं. ये सारे मदर-फ़ादर-किस-हग-टंग-ओरल-पुस्सी-डिक आदि प्रोपोगेंडा नहीं हैं. योग-आयुर्वेद-रामायण-महाभारत सब प्रोपोगेंडा है. बाईबिल किंग जेम्स अपने हिसाब से लिखवाते है तो वो ऑथेन्टिक है लेकिन वेद-पुराणों की कार्बनडेटिंग करवाए बिना नहीं मानोगे.
योग दिवस मनाने से (वो भी चाईनीज़ चटाई पर) इसका कॉरपोरेटाईजेशन हो रहा है. तुम्हारे माँ-बाप, तुम्हारी इन्टीमेसी, तुम्हारे चुंबन, तुम्हारे आलिंगन का कॉरपोरेटाईजेशन हो रहा है वो सही है. लेकिन योग, आयुर्वेद सब मिथ्या है और उसको एक पब्लिक-रिलेशन टूल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है.
कुछ लोग योग को प्रोपोगेंडा कह रहे हैं. कुछ ने आयुर्वेद को एक अँधविश्वास तक कह दिया है. कुछ लोग रिसर्च पेपर निकाल कर कह रहे हैं कि योग से कुछ नहीं होता.
समझ में ये नहीं आता कि प्रोपोगेंडा कौन कर रहा है. वह जो योग को मानता है या वह जो पानी पी-पी कर उसे नकारने पर तुला हुआ है.
ऐसे साईंटिफिक देशभक्त आपको भारत में ही मिलेंगे जो अपनी सारी परंपराओं को सिर्फ इसलिए नकार रहे हैं क्योंकि वो पश्चिमी मापदंडों पर खड़ी नहीं उतरती. भले ही वो मापदंड ठोस पदार्थ को लीटर में नापने का हो या फिर द्रव को किलोग्राम में.
एक अजीब सा सपोर्ट ‘फ्री सेक्स’ को मिल रहा है. स्वछंदता के नाम पर परिवारों का बिखरना (या जानबूझ कर उसे सहेजने की कोशिश ना करना) एक विचारधारा हो गई है. और ये विचारधारा पश्चिमी है इसीलिए सही है.
पोंगापंथी वो नहीं हैं जो योग, आयुर्वेद से जुड़े हैं. पोंगापंथी वो हैं जो अपने परिवेश, अपनी संस्कृति को नकार रहे हैं. नकारना भी उचित हो सकता है बशर्ते उसका कोई ठोस कारण हो. यहाँ तो कोई टॉम-डिक-हैरी कुछ भी कह-लिख देता है, तो लोग उसे आँख मूँद कर सही मान लेते हैं क्योंकि रमेश-सुरेश-गणेश घर की मुर्ग़ी दाल बराबर हैं.
तभी तो नटराज की मूर्ति को ‘डाँसिंग जीसस’ कहा जा रहा है और डेंढ सौ ईसवीं में जीसस को केरल लाया जाता है और सेंट थॉमस द्वारा ‘नोआ के संतान हैम’ जो काली चमड़ी वाले हैं और जिन्हें हिंदू ब्राह्मणों ने सताया है, उन्हें ईशू की शरण में पहुँचाया जाता है.
एक सभ्यता जो एँग्लो-सेक्सन युद्ध तक बर्बर थी, वो उस सभ्यता के सारे परंपराओं, चिन्हों, चिकित्सा पद्धतियों आदि को सिरे से नकार रही है जिसने उस समय बुद्ध, अशोक, महावीर जैन, सुश्रुत, चरक, पाणिनि, आर्यभट्ट, पतंजलि आदि दिये जब ये बर्बर प्रजातियाँ (आदमी कहना तो मूर्खता ही है) घर बनाना सीख रही थीं.
दुःख की बात ये है कि इस नए तरह के सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और मेकडोनल्डाईजेशन को देख सब रहे हैं पर उसके तात्कालिक स्वाद के चक्कर में उससे होने वाले मोटापे, रक्तचाप और हृदयरोग आदि से आँख मोड़े हुए हैं.