शीलू माय : मेरे गाँव की महिला आन्तरप्रेन्यॉर

इनका घर हमारे घर से पचास मीटर की दूरी पर है. इनका काम है सिलाई करना, सिखाना. लेकिन इनसे भी बड़ी बात ये है कि जब पूरी दुनिया मेरे ख़िलाफ़ हो जाती, फिर भी इन्होंने कभी भी मेरे बारे में गलत नहीं बोला. हमेशा अच्छे की कामना करती रहीं.

बूढ़ी हो चली हैं, दमा है. दो बेटियों की शादी कर दी. पति चल बसे. पति इनसे उम्र में काफ़ी बड़े थे, शायद पंद्रह से बीस साल का अंतर रहा हो. अब अकेली रहती हैं. शीलू इनकी बड़ी बेटी का नाम है. शीलू दी से पहले भी इनके आठ बच्चे हुए और सभी काल का आहार बनते चले गए. उस समय ये आम बात थी गाँवों में.

जब इनकी दूसरी बेटी हुई, तभी इनके पति को एक ट्यूमर हुआ. ट्यूमर को निकालते हुए डॉक्टर ने पति की उम्र देखी तो साथ ही ये सोचते हुए नसबंदी कर दी कि ये बाबा अब बच्चे लेकर क्या करेंगे. उस चक्कर में दो बेटियों के बाद घर में बच्चा नहीं हुआ.

शीलू माय, यानि शीलू की माँ, एक नॉर्मल संबोधन है गाँव में माँओं के लिए क्योंकि उनके नाम से नहीं बुलाते हैं. यही कारण है कि इनका नाम भी मुझे नहीं मालूम. नाम से याद आया कि मेरी दादी का क्या नाम था वो उनके बच्चे भी नहीं जानते. घर का नाम, सबसे छोटी थी तो तैनकी (सबसे छोटी) था. और मर गई एक नाम नहीं था उनके पास. वो भी अपनी बेटियों के नाम से ही जानी जाती रहीं.

हाँ, तो शीलू माय के सामने ये समस्या थी कि अब बेटा तो होने से रहा और खेती छोटी है तो बच्चियों को ही पढ़ा कर तैयार करना होगा. और पढ़ाने में तो पैसा लगता है, जो ही लगता हो उस वक़्त. इनको लगा कि इन्हें कुछ ऐसा करना चाहिए कि घर में आमदनी बढ़े.

पता चला कि बागडोब वाली (गाँव की ही, मेरे मित्र की माँ जो बागडोब नामक गाँव से हैं) सिलाई करती है, और लोग उसके पैसे देते हैं. पहुँची उनके पास और पता किया कि कैसे क्या होता है. वो बेचारी सीधी महिला हैं, बोली कि उन्होंने तो बस देख-देख कर ही सीखा है. ज्यादा पता नहीं था.

और पता करने पर पता चला कि शीलू दी से ही एक बड़ी लड़की सिलाई सीख रही थी कहीं से. उनसे मिली तो उन्होंने एक किताब दे दी और जगह का नाम बताया कि बेगूसराय में काली स्थान के पास एक हैं जो सिखाती हैं.

अब समस्या ये थी कि गाँव की महिला सीखने कैसे जाएगी. बेटियाँ तो स्वछंद विचरण करती हैं, बहुओं को वो स्वतंत्रता नहीं थी. पहले पति देव से परमिशन माँगी, तो मिल गई. फिर बच्चियों को स्कूल के लिए तैयार करने के बाद, खाना बनाकर, पति को खिलाकर, शीलू माय बेगूसराय की यात्रा पर निकलती.

रास्ते दो ही थे. दोनों अलग-अलग थे लेकिन गाँव के बीच से जाते थे. लोग देखते तो शायद उन्हें पचती नहीं बात. वो ये बात जानती थीं. इसीलिए वो गाँव के मंदिर, जो घर के पास ही था, वहाँ से होते हुए, उसके सामने के खेतों से होते हुए, एक गाँव पार करते हुए, सीधा हाइवे पर निकलती थी. ये मैंने लिख दिया तो आपको आसान लग रहा होगा, लेकिन लगभग चार किलोमीटर का रास्ता है.

वहाँ वो बस के आने से पहले पहुँचती और आठ आने का किराया देकर बेगूसराय स्टैण्ड जाती. वहाँ से फिर पैदल तीन किलोमीटर चलकर वो सीखने की जगह पर पहुँचती जहाँ क्लास लगभग ख़त्म होने वाली होती थी.

शिक्षिका के पास देर से आई गाँव की महिला के लिए समय नहीं होता था, लेकिन ये लगातार कोशिश करती, किसी तरह आधे घंटे में जो सीख पाती सीख लेती. ललक थी, तो उनके लिए सिलाई का व्याकरण सीखना भर काफ़ी था. अंततः किताब और कोचिंग की मदद से तीन महीने में वो जितना सीखना था, सीख गईं.

फिर उन्होंने ब्लाउज़, पेटीकोट आदि की सिलाई से काम शुरु किया और आज वो सलवार-कुर्ता, क़मीज़ आदि सिल लेती हैं. लगभग तैंतीस सालों से वो ना सिर्फ सिलाई कर रही हैं, बल्कि हर साल दसियों बच्चियों को सिखाती भी हैं. ज़ाहिर है कि एक मामूली फीस भी लेती हैं, लेकिन वो बाज़ार से बहुत कम ही.

ये कहानी उन्होंने तब बताई जब मैं उनकी ये तस्वीर ले रहा था. बोली, “मेरे जैसी बुढ़िया की तस्वीर लेकर क्या करोगे? लोग कहेंगे कि बुढ़ापे में भी काम करती है!”

मैंने उन्हें कहा, “आप जो कर रही हैं, वो मामूली बात नहीं है. लगभग हज़ार बच्चियों को आपने सिखाया तो आप शिक्षिका हैं, ज्ञान देने वाली. आप मेरे लिए उन शिक्षिकाओं से भी ऊपर हैं क्योंकि आपने ये ख़ुद सीखा, और आपके सामने जो माहौल था, उसके हिसाब से ये बहुत बड़ी बात है.”

वो आज इस उम्र में भी सिलती हैं, और सिखाती हैं. इसका कारण पैसे कमाने से ज्यादा कुछ और ही है. अब उनके घर में वो अकेली हैं. बेटी, दामाद, नाती, नातिनें आते हैं लेकिन वो हमेशा पास नहीं रह सकते.

बुज़ुर्ग लोगों के लिये समय काटना सबसे पहाड़ काम है. जब वो बच्चियों को सिखाती हैं तो उनका समय कट जाता है, गाँव की ख़बरें मिलती हैं, मनोरंजन हो जाता है. मैं जब भी जाता हूँ तो इनके घर जरूर जाता हूँ क्योंकि बहुत लगाव रहा है. आस पास के लोग बदल गए, वो नहीं बदली. उनके पास कई कहानियाँ होती हैं, और उनके कहने का तरीक़ा बेजोड़ है.

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