आडवाणी जी नहीं बनेंगे, यह अनुमान तो 2014 में ही हो गया था. वे सबसे उपयुक्त हो सकते थे और मेरी इच्छा थी कि वे राष्ट्रपति बनें, लेकिन परिस्थितियों के कारण 2013 में ही स्पष्ट हो गया था कि उनकी भूमिका अब सीमित ही रखी जानी चाहिए. उन्हें नहीं बनाने का निर्णय राजनैतिक रूप से बिल्कुल सही है और मैं इससे सहमत हूं.
कई लोगों को इस निर्णय से अचरज और दु:ख हुआ है, ये स्वाभाविक है. लेकिन दुःख का कारण मुख्यतः भावनात्मक है क्योंकि लोगों लगता है कि आडवाणी जी वरिष्ठ हैं, इसलिए उन्हीं को बनाया जाना चाहिए था. राजनीति भावनाओं से नहीं चलती और न चलनी चाहिए.
कुछ लोगों को आज शिकायत है कि आडवाणी जी को प्रत्याशी न बनाकर भाजपा ने उनके साथ ‘अन्याय’ किया है. मैं इस बात से सहमत नहीं हूं. पिछले 50 वर्षों से जनसंघ और फिर भाजपा में आडवाणी जी को लगातार जितना सम्मान मिल रहा है, क्या शिवसेना के बालासाहेब ठाकरे के अलावा किसी भी अन्य पार्टी में, किसी भी नेता को, इतने लंबे समय तक इतना सम्मान मिला है?
ये बिल्कुल ठीक है कि यह सम्मान आडवाणी जी को उपहार में नहीं मिल रहा है, बल्कि यह उनके कर्तृत्व का ही परिणाम है. लेकिन साथ ही, मैं भाजपा की वर्तमान पीढ़ी की भी इस बात के लिए प्रशंसा करूंगा कि उन्होंने आडवाणी जी के प्रति वह सम्मान आज भी कायम रखा है. अन्यथा भारतीय राजनीति में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं, जहां अगली पीढ़ी के नेताओं ने पार्टी या सरकार पर अधिकार पाने के लिए वरिष्ठ नेता को अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
क्या आपको याद नहीं है कि सोनिया जी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के लिए उस समय के कांग्रेस के अध्यक्ष सीताराम केसरी के साथ कांग्रेस के ही कुछ नेताओं ने किस तरह कांग्रेस के ही कार्यालय में धक्कामुक्की की थी, उनके कपड़े फाड़े थे और उन्हें जान बचाने के लिए बाथरूम में छिपना पड़ा था?
जिन जॉर्ज फर्नांडिस की मदद से नीतीश कुमार इतना आगे बढ़े, आज वो जॉर्ज फर्नांडिस कहां हैं? पिछले हफ्ते उनका जन्मदिन था, पर क्या उनके पूर्व अनुयायियों में से किसी ने उन्हें याद भी किया? मुलायम सिंह यादव का तो उनके ही बेटे ने क्या हाल कर दिया है, ये आपने कुछ ही महीनों पहले देखा ही है.
इसीलिए मैंने कहा कि मैं भाजपा की वर्तमान पीढ़ी की प्रशंसा करता हूं कि उन्होंने सरकार और पार्टी दोनों की ज़िम्मेदारी मिल जाने के बाद भी आडवाणी जी का सम्मान कायम रखा है. यह राजनीति में एक अच्छा उदाहरण है, हालांकि मैं जानता हूं कि आप में से बहुत-से लोग इससे असहमत होंगे.
आडवाणी जी के बारे में एक बात मैंने कई लोगों के पोस्ट में पढ़ी है कि “उन्होंने पार्टी को बनाया है”. मैं इस बात से पूरी तरह असहमत हूं. आप व्यक्ति को पार्टी से बड़ा समझने की भूल कर रहे हैं. अटलजी हों, आडवाणी जी हों या मोदीजी हों, पार्टी से बड़ा कोई नहीं है.
पार्टी को यहां तक पहुंचाने में बेशक हर व्यक्ति का योगदान है, लेकिन किसी एक व्यक्ति के भरोसे पार्टी यहां तक नहीं आई है. आडवाणी जी ने पार्टी के लिए बहुत-कुछ किया है, ये कहते समय आप यह मत भूलिए कि पार्टी ने भी उन्हें बहुत-कुछ दिया है.
1977 की जनता सरकार में केबिनेट मंत्रालय से लेकर आगे तीन बार भाजपा का अध्यक्ष पद और पहली एनडीए सरकार में गृह मंत्री और उपप्रधानमंत्री जैसे महत्वपूर्ण और सम्मानजनक पद उन्हें पार्टी ने ही दिए थे.
अटलजी की एनडीए सरकार में ज्यादा अधिकार उन्हीं के पास थे और हर निर्णय उनकी सहमति से ही होता था. इतना ही नहीं, 2004 में अगर एनडीए की जीत हुई होती, तो प्रधानमंत्री आडवाणी जी ही बनते. 2009 के चुनाव में भी पार्टी ने उन्हीं को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाया था, लेकिन उनके नेतृत्व में अगर बहुमत नहीं मिला, तो इसका दोष नरेन्द्र मोदी का कैसे हो गया?
कुछ लोगों का तर्क है कि मोदी जी ने आडवाणी जी के साथ बहुत गलत किया है, जबकि गुजरात दंगों के बाद भी उन्हीं के कारण मोदी जी मुख्यमंत्री बने रह सके थे. लेकिन क्या इतने वर्षों की इन दोनों नेताओं की राजनीति में केवल यही एक प्रसंग हुआ है?
जरा पता लगा लीजिए कि आडवाणी जी कि सोमनाथ वाली रथयात्रा में मोदीजी की क्या भूमिका थी. आडवाणी जी पिछले कई सालों से गांधीनगर से सांसद हैं. वहां वे कितनी बार जाते हैं, ये मुझे पता नहीं, लेकिन उनका चुनाव अभियान कौन चलाता है और प्रचार कौन करता है, ये आप समझ ही गए होंगे.
और मोदीजी के साथ क्या किया गया, इस बारे में कितने लोगों ने ध्यान दिया है? मुझे तो लगता है, जीवन भर ये व्यक्ति काम करता रहा, फिर भी आलोचना ही सुनता रहा है.
हुजूरियों और खजूरियों का झगड़ा हुआ, वाघेला ने मुख्यमंत्री बनने के लालच में पार्टी तोड़ी, और बाद में वापसी की तो इस शर्त पर कि मोदी को गुजरात से हटाया जाए. तब जिन वरिष्ठों ने यह मांग मान ली और मोदीजी को गुजरात से हटाकर दूर कश्मीर भेज दिया, क्या उनमें आडवाणी जी नहीं थे?
फिर भी ये व्यक्ति कारगिल, लद्दाख और हिमाचल प्रदेश जैसे दुर्गम इलाकों में चुपचाप काम करता रहा. फिर जब मुख्यमंत्री बनाकर गुजरात भेजा गया, तब भी वह कोई पुरस्कार नहीं था, बल्कि चुनाव सिर पर थे और केशूभाई के नेतृत्व में हार पक्की दिख रही थी, इसलिए चालाकी से मोदी जी को गुजरात भेज दिया गया, ताकि हार का ठीकरा उन्हीं के सिर फूटे. क्या ये निर्णय आडवाणी जी की सहमति के बिना हो जाता?
लेकिन उस व्यक्ति ने अपनी कुशलता और परिश्रम से न सिर्फ वह एक चुनाव जितवाया, बल्कि लगातार तीन चुनाव जीतकर हैट्रिक बनाई. इसका श्रेय भी तो उसी का है? और इसके बाद अपनी मेहनत, लोकप्रियता और रणनीति के बल पर ही वह व्यक्ति प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनने में सफल हुआ.
उससे पहले 2004 और 2009 में जब आडवाणी जी प्रत्याशी थे, और पार्टी को जीत नहीं दिला सके थे, तो उसके लिए मोदी का क्या दोष है? मुझे जिन्ना की मजार पर माथा टेकने वाले आडवाणी जी याद हैं, सोनिया गांधी पर आरोप लगाने वाले और फिर माफी मांग लेने वाले आडवाणी जी भी याद हैं…
और 2013 में मोदी जी की उम्मीदवारी का खुला विरोध करने वाले और पार्टी में अपने अनुयायियों के सहयोग से उनकी राह में रोड़े अटकाने वाले आडवाणी जी भी मुझे याद हैं. 2004 से 2014 तक उनके नेतृत्व में संसद में विपक्ष कितना कमज़ोर था, ये आप भूल गए होंगे, मैं नहीं.
लेकिन इस सबके बावजूद अगर मैं राजनैतिक पहलू को अलग रख दूं, तब भी आडवाणी जी की उम्र को देखते हुए मुझे नहीं लगता कि उन्हें राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री जैसी कोई ज़िम्मेदारी दी जानी चाहिए.
अपने घर-परिवार या मोहल्ले में कोई 90 वर्ष के बुजुर्ग हों, तो उनके बारे में कल्पना करके देखिए कि क्या वे लगातार 5 सालों तक रोज़ 16-18 घंटे काम कर सकेंगे, सार्वजनिक कार्यक्रम, बैठकें, भाषण, विदेश यात्राएं आदि कर सकेंगे और दबाव में लगातार काम करते रह सकेंगे?
बाकी जहां तक एनडीए के राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी का सवाल है, कई लोग सिर्फ यह कहकर उन्हें अयोग्य बता रहे हैं क्योंकि इन लोगों ने कभी उनका नाम नहीं सुना है. मैं जानना चाहूंगा कि जब नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे, उससे पहले तक इनमें से कितने लोगों ने मोदी जी का नाम तक सुना था?
और जहां तक प्रत्याशी की जाति देखने का सवाल है, तो वह मीडिया का नरेटिव है और मुझे उस पर कुछ नहीं कहना है क्योंकि मैं न मीडिया के एजेंडे में कभी फंसता हूं और न फंसूंगा. बाकी आप समझदार हैं ही.