दो घटनाएं हैं, दोनों परस्पर संबद्ध हैं. बबवा ने जब बनारस बुलाया, तो मैं आनन-फानन में लोकमान्य तिलक सुपरफास्ट के जनरल डब्बे में बैठकर वहां पहुंचने का साहस कर सका (इसलिए, कि लगभग छह महीने पहले अपने मित्र आनंद कुमार के पिताजी के साथ उसी तरह गया और उम्मीद थी कि चूंकि पाटलिपुत्र स्टेशन बहुत पॉपुलर नहीं है, तो जनरल में बैठने की जगह मिल जाएगी).
…छह महीने में बहुत पानी गंगा में बहती नालियों में बहा है. पाटलिपुत्र स्टेशन की भी ख़बर सबको लग चुकी है और जनरल में वाकई ‘जनरल’ का माहौल बन चुका है. खैर….वहां क्या माहौल था, वह अभी बताउंगा, पर पहले यह जान लीजिए कि लोग बहुत खुश थे.
मूली के साथ पूरी या परांठा खा रहे थे, शर्ट को अपनी बेंच पर रखकर बनियान में पूरी ठसक से बैठे थे, अपनी कांख में न जाने कौन सा गुप्त खजाना खोजकर उसे फिर सूंघ भी रहे थे, बच्चे डिब्बे में ही सू-सू कर दे रहे थे और उनकी मांएं निर्लिप्त भाव से दो थप्पड़ लगाकर अपना स्तन उनके मुंह में ठूंस कर मुंह चियारे सो जा रही थीं.
कुछ पुरुष राजनीतिक चर्चा करने का माहौल बना रहे थे, तो कुछ ताश खेल रहे थे. डब्बे में पसीने, उमस, गंदी हवा, डकार, मूत और बहुत कुछ मिल-जुलकर एक अनिर्वचनीय गंध पैदा कर रहे थे. हालांकि….और यह हालांकि, बहुत महत्वपूर्ण है, लोग बहुत खुश थे.
….बनारस से 40 किलोमीटर दूर सैदपुर-माहपुर अजित सिंह दद्दा के उदयन गया. वहां जो खातिरदारी हुई वह तो दीगर, दद्दा ने ‘उदयन’ की चर्चा चलने पर कहा, ‘लेकिन, व्यालोक जानते हो… मुसरटोली के मुशहर खुश बहुत रहते हैं, भूटान की तरह इनका हैप्पीनेस क्योशेंट बहुत अधिक है’.
मैंने दद्दा को कहा – दरअसल, सदियों से कीड़े की तरह जीते हुए वे यह भूल ही गए हैं कि वे मानव भी हैं, उनके भी कुछ ‘मानवाधिकार’ हैं.
….इन दोनों घटनाओं को जोड़ने का मकसद है. सचमुच एक आम बिहारी अपने आदमीपन को ही भूल चुका है भाई. बनारस से लौटती बार स्लीपर (?) में घुसा और साब, उसकी हालत जनरल से भी ख़राब थी.
यात्रियों ने गुटखे सें सिंक को भर दिया था और उससे पानी छलकता था, जब ट्रेन तेज़ रफ्तरा में होती थी. उसे रोकने के लिए वहां बैठी माताजी ने कार्टन के टुकड़े बिछा दिए थे. पानी, गुटखे की पीक और थूक से मिलकर वो पूरा लसर-फसर हो गया था. माताजी एंड टीम थोड़ा सा उठ कर वहीं उड़सकर बैठ गयीं …कुछ देर के बाद वहीं लिट्टी और मिर्ची का सेवन भी शुरू हो गया.
…भीड़ इतनी थी कि किसकी कांख किसके मुंह में लग रही थी, पता नहीं चल पा रहा था, चिल्ल-पों का बाज़ार गरम था, उसी में कोई खैनी भी खा रहा था, तो कोई मोदी को भी कोस रहा था. मने, पूरी निर्लिप्तता, किसी को खीझ या गुस्सा नहीं आ रहा था कि पैसे देने के बावजूद रेलवे उनको न्यूनतम सुविधा भी क्यों नहीं दे रहा.
हमारे तुगलक कुमार कहते हैं कि बिहारी किसी भी राज्य में प्रवासी नहीं निवासी है. जी नहीं मालिक, हम निवासी या प्रवासी हैं या नहीं, हम तो आदमी ही नहीं. हम तो अपने मानव होने का ‘बोध’ तक खो चुके हैं. हम खून-पसीना एक कर कमाते हैं, जिसे कभी पंजाब का ठेकेदार तो कभी पुलिस की वर्दी पहने गुंडा तो कभी टीटीई झटक लेता है. जो रेलवे मुझे बारहां 43 फीसदी का ताना देती है, वह मुझे मनुष्य के तौर पर सफर करने का भी अधिकार नहीं देती.
दूसरे राज्यों में पिटाई और दुत्कार तो छोड़ ही दीजिए. उस पर तो हम बात ही न करें. और, मुख्यंत्री महोदय! यह पीढ़ी दर पीढ़ी आप जैसे नेताओं की देन है, जिसने बिहार को चाट लिया है, दीमक की तरह. अगर आप अच्छी सड़क, बिजली, उद्योग, रोजगार, अस्पताल हमें बिहार में देते तो हम भी कहीं मूलतने नहीं जाते…. लेकिन आप सब ने हमें बर्बाद कर दिया है.
….आपकी तवज्जो के लिए कुछ फोटो डाल दे रहा हूं…मिस्टर तुगलक!
(डिस्क्लेमरः यहां बिहार से मतलब लखनऊ तक के इलाके से है.)