एक बार किसी कार्यक्रम के उपरांत सवाल-जवाब के सत्र में किसी ने संघ प्रचारक इन्द्रेश कुमार से एक सवाल पूछा, सवाल था कि पढ़े-लिखे और अनपढ़ में क्या फ़र्क है? इन्द्रेश कुमार ने कहा, कहने के लिये तो बहुत गिनवा सकता हूँ पर फिलहाल आप पढ़े-लिखों के लिये एक उदाहरण देना काफी है.
मान लो अभी मेरे माता-पिता यहाँ आ गये और मैं आप सबका उनसे परिचय अंग्रेजी में करवाऊं तो आप लोग कहेंगे, वाह, इन्द्रेश जी तो बड़े पढ़े-लिखे और ज्ञानी हैं पर अगर गलती से मैंने उनका परिचय हिंदी, बंगाली, पंजाबी, हरियाणवी या अपनी किसी भाषा में करा दिया तो आप सब कहेंगे ये कैसा अनपढ़ आदमी है.
मैंने अपनी मातृभाषा में अपने माँ-बाप का परिचय कराया तो मैं अनपढ़ और एक गुलामी में मिली भाषा में परिचय कराया तो बड़ा पढ़ा-लिखा, इस देश में अनपढ़ और पढ़े-लिखे के बीच फिलहाल सबसे बड़ा फर्क तो यही है.
इंग्लैंड में हो रहे चैम्पियंस ट्राफी के दौरान पाकिस्तानी कप्तान सरफ़राज़ अहमद को उनकी खराब अंग्रेजी के चलते लगातार ट्रोल किया जा रहा है. सरफ़राज़ का उदाहरण अकेला नहीं है अपने देश में भी अंग्रेजी न बोल पाने को हेय दृष्टि से देखा जाता है. अंग्रेजी न जानने वालों का मजाक अगर कोई अंग्रेज उड़ाये तो समझ आता है पर सरफ़राज़ का मजाक वो लोग उड़ा रहें हैं जिन्होनें गुलामी के दौर में एक नहीं वरन कई-कई बार अपनी मातृभाषा को छोड़कर आक्रान्ताओं की भाषा अपनाई.
सिंध और देवल में जब बिन-कासिम आया था तो इन्हीं बौद्धिक पथ-भ्रष्टों ने उसकी खुशामद करने और जजिया माफ़ करवाने के लिये अपनी भाषा छोड़कर अरबी पढ़ना शुरू किया फिर जब मुग़ल और तुर्क हमलावर हुए तो उनके चरण-चुम्बन करने और उनके दरबार में वाह-वाह करने के लिये फ़ारसी और उर्दू सीख ली फिर अंग्रेज आये तो गधों की तरह अपनी पीठ पर अंग्रेजी का बस्ता लाद लिया. इस बीच इनको पता ही नहीं चला कि कब उनकी अपनी देवभाषा संस्कृत को डेड लैंग्वेज घोषित कर दिया गया.
मान लीजिये कल इंग्लैंड की टीम हमारे यहाँ खेलने आती है तो क्या आप कभी कल्पना भी कर सकतें हैं कि वो हिंदी या आपकी किसी प्रादेशिक भाषा में मीडिया को उत्तर देगा और इन भाषाओं में उत्तर न देने पर उसके अपने देशवासी उसको ट्रोल करेंगें?
गुलामी के कितने लक्षण हममें अभी बाकी हैं ये पूरा प्रकरण उसका छोटा उदाहरण मात्र है. ये कौन सी हीन-ग्रंथि है जिसके चलते आप एरपोर्ट पर हिंदी बोलने में लजाते हैं और अच्छी अंग्रेजी न आते हुए भी जबर्दस्ती सहयात्री को (जो दुर्भाग्य से आपकी ही तरह गुलाम मानसिकता का है) प्रभावित करने के लिये अंग्रेजी पत्रिका या अंग्रेजी अखबार लेकर बैठ जातें हैं?
अगर कोई भारतीय संस्कृति, भारतीय परिधान और भारतीय भाषा के साथ है तो आपके लिये वो अजूबा है पर वही अगर कोई सूट-बूट में है, अच्छी अंग्रेजी बोलता है तो आप कहते हैं, वाह क्या पढ़ा-लिखा आदमी है और अंग्रेजी तो ऐसी बोलता है कि हमने तो ऐसी अंग्रेजी कभी सुनी ही नहीं.
अधिक भाषायें जानना इंसान के विकसित मस्तिष्क का सूचक है और चूँकि आज अंग्रेजी एक वैश्विक भाषा के रूप में स्थापित है इसलिये अंग्रेजी जानना भी जरूरी है. इसलिये अंग्रेजी समेत किसी भाषा में बात करना या लिखना बुरा नहीं है.
बुरा है उस भाषा का अभिमान लेकर अपनी मातृभाषा का अपमान करना. अंग्रेजी समेत अलग-अलग भाषायें सीखना आज के युग की अनिवार्यता है उसे सीखिए जरूर, पर उनमें से किसी को भी अपनी मातृभाषा के ऊपर स्थान मत दीजिये और न ही किसी को उसके चलते लांछित करिये.
दुर्भाग्य से ये भाषाई हीनता-बोध भारत में संसद से लेकर सड़क तक है. फ़िराक गोरखपुरी यानि रघुवीर सहाय हिन्दू, उर्दू और अंग्रेजी तीनों ही भाषाओँ पर महारत रखते थे. अंग्रेजी पर तो उनको इतना अधिकार था कि वो अक्सर कहा करते थे कि भारत में तो डेढ़ ही आदमी है जो अंग्रेजी जानता है, एक मैं और आधी नेहरु. आपको पता है आंग्ल भाषा पर इतना अधिकार रखने वाले फ़िराक ने कभी भी अंग्रेजी को अपनी हिंदी के ऊपर महत्ता नहीं दी.
आप जब माँ की गोद में पहली बार आये होंगें तो याद करिये आपकी माँ ने, आपकी नानी और दादी माँ ने, आपके दादा और नाना ने किस जुबान से आपको पहली बार पुकारा था? किस जुबान में आपने पहली बार अपनी माँ को पुकारा था?
जो जुबान, जो भाषा हमें भगवान ने दी है, जिस भाषा से हमने धरती पर ईश्वर की प्रतिनिधि अपनी माँ को पुकारा था और जिस भाषा में मुझे और आपको बचपन के सारे लाड़-प्यार मिले अगर कोई उस भाषा में बोलने पर शर्मिंदा हो तो उससे अधिक अभागा और बदनसीब इंसान कोई नहीं हो सकता और ऐसे बदनसीबों के झुण्ड जब देश में लाखों-करोड़ों में हो तो फिर सोचना पड़ेगा कि हम किस ओर जा रहे हैं.
भारतेन्दु हरिश्चंद्र की इस वाणी को दुहराते हुए चेताने के सिवा कोई और रास्ता नहीं है. भारतेन्दु बहुत पहले कह गये थे,
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल….