कला में क्या देसी और क्या विदेशी? पर जिस तरह भाषा, सरहद, लिंग, जाति आदि का भेद समाज में है तो फिर वर्गीकरण होना ही है. पर मेरा यह यक़ीन बना हुआ है कि प्रकृति की तरह कला भी इस वर्गीकरण से मुक्त है. मेरे इस यक़ीन के पीछे सिनेमा का बड़ा हाथ है.
देश-विदेश की तमाम फ़िल्में जिनसे ऊर्जा मिली है उन्होंने हर बार इस यक़ीन को पुख्ता ही किया है. फ्रांस में 3 जून 1959 यानि 58 वर्ष पहले रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘द 400 ब्लोज़’ ऐसी ही एक फ़िल्म है. फ़्रांकों त्रुफ़ो निर्देशित इस फ़िल्म को ‘फ्रेंच न्यू वेव’ की शुरुआत माना जाता है.
हालांकि समझने की दृष्टि से सभी क्षेत्रों के सिनेमा को बांट दिया गया है और यूरोपियन महाद्वीप में ख़ासकर पोलिश, जर्मन, इटैलियन, चेक, फ्रेंच, स्वीडिश, डैनिश, आइरिश आदि में सिनेमा के जनक देश फ्रांस के सिनेमा को सम्मान की नज़र से देखा जाता है. इसलिए भी ‘द 400 ब्लोज़’ जैसी फ़िल्म महत्त्वपूर्ण हो जाती है जब न केवल कलात्मक रूप से बल्कि ऐतिहासिक रूप से भी यह सिनेमा इतिहास की माइलस्टोन फ़िल्म बन जाती है.
थोड़ा पीछे जा कर हम इसे ठीक-ठीक समझ सकते हैं. यूरोपियन सिनेमा का इतिहास हमेशा से समृद्ध ही रहा है, ख़ास तौर से जब सिनेमा के प्रारम्भिक दशक में ही तकनीक और आइडिया ने दुनियाभर में यहाँ के सिनेमा के प्रति जबर्दस्त आकर्षण पैदा कर दिया था. मगर हॉलीवुड के देश अमेरिका ने आयातित और आज के बने सिनेमाई उद्योग की नींव तभी रख दी थी और प्रथम तथा द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अपने पैर यूरोप के सिनेमा में जमा लिए थे.
बहरहाल, चित्रकला और फैशन के देश फ्रांस में सिनेमा को लेकर उथल-पुथल ज़्यादा थी. और तब के चित्रकला में चल रहे आंदोलनों में सिनेमा बनाने के साथ ही सिनेमा का कलात्मक पक्ष सामने आया. फ्रेंच इंप्रेशनिस्ट, सोवियत मोंताज, पोएटिक रियलिज़्म, जर्मन एक्स्प्रेशनिज़्म, इटैलियन निओरियलिज़्म जैसी अवधारणाओं ने सिनेमा जगत में जबर्दस्त क्रान्ति पैदा कर दी और फिर अमेरिका के बाज़ारवाद ने यूरोप के फ़िल्मकारों को अपने यहाँ बुलाकर अपनी तरह का सिनेमा रचना शुरू कर दिया.
बस यहीं से लगभग पचास के दशक तक सिनेमा में एक तरह का ठहराव पैदा होने लगा. ख़ासकर फ्रांस के सिनेमा में जिसकी आलोचना ‘काज़ दे सिनेमा’ नामक फ़िल्म पत्रिका में त्रुफ़ो, ज्यां लुक गोदार, एरिक रोमर, जैक्स रिवेत, क्लॉड शेब्रोल जैसे युवा आलोचक करने लगे थे.
बहुत संक्षिप्त में इस बात को समेटते हुए हम त्रुफ़ो पर आते हैं जब रॉबर्ट ब्रेसों, आन्द्रे बाजाँ, हैनरी लांगलो, जीन रिनों जैसे समीक्षकों-फ़िल्मकारों के समर्थन से अपनी तरह का सिनेमा बनाते हुए ‘द 400 ब्लोज़’ के साथ ‘फ्रैंच न्यू वेव’ की शुरुआत हुई और फिर जिसे गोदार की ‘ब्रेथलेस’, शेब्रोल की ‘ला ब्यू सर्ज’, एले रेज्ने की ‘हिरोशिमा मोन अमोर’ आदि से सशक्त वजूद हासिल हुआ.
त्रुफ़ो का अपनी समवर्ती फ़िल्मों की आलोचना का मुख्य बिन्दु ‘ऑटर थ्योरी’ की पैरवी था जिसके बाद उन्होंने अपनी तरह की कहानी (जिसे आत्मकथ्य भी कहा जा सकता है) आधारित फ़िल्म ‘द 400 ब्लोज़’ लिखी. सिनेमा इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण पन्ना यहाँ से खुलता है. बचपन किन अर्थों में बड़े हो जाने पर सालता है और बचपन की स्मृतियों से कला कैसे करवट लेती है, उसका बहुत कुछ इस फ़िल्म के ज़रिये हमें त्रुफ़ो तक पहुंचाता है.
पेरिस की सड़कों पर जहां-तहां से लिए हुए शॉट्स जिसमें एफ़िल टावर दिखाई देता है, से फ़िल्म की शुरूआत होती है. फ़िल्म की शुरुआत से ही अंतोन नाम का बिगड़ैल बच्चा दर्शक की सहानुभूति पाता है. फिर शुरू होती है अंतोन के झूठ और गलत आदतों के पनपने की दास्तान. हर गलती से बचने के लिए एक झूठ. पर उसके झूठ पकड़ लिए जाते हैं.
शुरुआती नासमझी कब बगावत का रूप ले लेती है ये हमें पता भी नहीं चलता. हाँ कुछेक दृश्य हैं, जब अंतोन के बाल-मन से रूबरू होते हुए हम वहाँ पहुँचते हैं जहां से एक नादान बच्चे का भविष्य बिगड़ने की कहानी शुरू होती है. शिक्षक की डांट से बचने के लिए वह एक पूरा दिन अपने दोस्त के साथ पेरिस की सड़कों पर घूमते हुए गुजारता है और वापस लौटते समय अपनी माँ को किसी और आदमी को चूमते हुए देख लेता है. यह बात उसके कोमल मन में एक अजीब असहजता के साथ बैठ जाती है.
और अगले दिन शिक्षक द्वारा स्कूल न आने का कारण पूछने पर वह बताता है कि उसकी माँ की मृत्यु हो गई थी. पर कुछ समय बाद ही उसका यह झूठ भी पकड़ा जाता है. यहाँ से अंतोन का किरदार करवट लेता है. उसके भीतर जो चल रहा है उसकी किसी को भनक तक नहीं. सौतेले पिता और माँ को कई बार झगड़ते हुए सुनना भी उसके मन की थाह में रोने जैसा है.
यह त्रुफ़ो के अपने जीवन का सच था जब उनका बचपन इसी तरह की घटनाओं का शिकार हुआ था. झूठ की यह आदत चोरी में बदल जाती है जिसकी परिणति अंत में उसके जेल में वेश्याओं के साथ रहने और फिर बाल सुधार गृह में सज़ा काटने के रूप में होती है. अंतोन मौका पाकर फिर भाग जाता है, और भागते हुए समुद्र के पास जा पहुंचता है. समुद्र को देखना उसके बचपन का सपना था और यहीं कैमरे के अंतोन के चेहरे पर फ्रीज़ होने के साथ फ़िल्म खत्म होती है.
कहानी में जिस एक तरह की सच्चाई और आसानी है दरअसल उसके फिल्मांकन और अनुभव के रूप में पूरी फ़िल्म कहीं आगे तक ले जाती है. अंतोन के हर अगले कदम की गुनाहगार वो परिस्थितियाँ हैं जिसकी सज़ा केवल अंतोन के हिस्से आती है. कब क्लास के बच्चों के साथ पढ़ने वाला लड़का अचानक से उनसे अलग खड़ा दिखाई देता है, वो अनुभव ही इसी फ़िल्म का जादू है. फ़िल्म का पार्श्वसंगीत एक अनूठे ही रूप में कहानी का ‘सब-टेक्स्ट’ बताता है. फ़िल्म का बहाव एक गहरे तालाब के आसपास फैली चुप्पी को महसूस कराता है. त्रुफ़ो की यह फ़िल्म ऐसे ही ‘फ्रेंच न्यू वेव’ की पैरोकार फ़िल्म बनती है. दरअसल यहाँ से फ़िल्मकार के रूप में लेखक-निर्देशक का जो समीकरण बनता है उसका असर दूर तक जाता दिखता है. फिर फ़िल्मांकन की शैली भी उस दौर के प्रचलित तरीकों से अलग.
सिनेमा के जुनूनी लोग यहाँ से ही ऊर्जा पाते हैं. अकीरा कुरोसावा, लुई बुनवेल, सत्यजित रे जैसे फ़िल्मकारों के लिए ‘द 400 ब्लोज़’ सबक की तरह बन जाती है. यही नहीं ‘फ्रेंच न्यू वेव’ की इस लहर ने दुनियाभर के सिनेमा को एक अलग ही तरह से प्रभावित किया. सबसे बड़ी बात यह कि त्रुफ़ो ने ‘द 400 ब्लोज़’ के ज़रिये अपराधी हुए जा रहे अंतोन को जिस तरह से पेश किया उसका प्रभाव यही है कि वह सोचने पर मजबूर करता है. न केवल उस समय बल्कि लगभग पचास साल बाद भी यह फ़िल्म अपने प्रभाव में कभी पुरानी नहीं होती.
सिनेमा अपने सम्पूर्ण रूप में क्या अनुभव दे सकता है उसकी अद्भुत मिसाल यह फ़िल्म है. फ़िल्म के अंत में कैमरा फ्रीज़ हो जाना कमाल का कलात्मक ठहराव है. बिलकुल कैमरे के ज़रिये अंतोन दर्शकों से सवाल कर रहा है कि उसकी इस ज़िंदगी को वह किस तरह से देखते हैं? क्या वो भी जिम्मेदार तो नहीं उसकी इस हालत के लिए? यक़ीनन जवाबों की खोज में सवालों का बने रहना ही ‘द 400 ब्लोज़’ और निर्देशक के रूप में त्रुफ़ो का हासिल है. हम आज भी वहीं के वहीं हैं यही सच्चाई है.