अभिजीत भाई का एक विचारोत्तेजक प्रश्न. अभिजीत भाई का मानना है कि हम भारतीयों में छिद्रान्वेषण की बुरी लत है और इससे मैं पूरी तरह सहमत हूँ.
और यह भी कि गांधी सहित सभी महापुरुषों के उज्ज्वल पक्षों से हमें सीखना व सम्मान करना चाहिये. यह भी एक कठोर सत्य है कि गांधी अपने उदय से लेकर आज तक निरंतर चर्चा में बने हुये हैं. वे विश्व में भारत की पहचान भी बने हुये हैं.
ये भी सच है कि 1857 के बाद पहली बार और उससे भी अधिक व्यापक स्तर पर गांधीजी ने इस देश की जनता को गुलामी व अंग्रेजों के विरुद्ध जागरूक किया और उनके कारण 5 करोड़ लोग सक्रिय रूप से आजादी के आंदोलन में भागीदार बने.
इस दिशा में उनके योगदान से इनकार नहीं किया जा सकता. उनकी इस मास लीडर क्वालिटी के कारण उनसे समर्थन प्राप्त करने हेतु नेताजी ने उन्हें ‘ राष्ट्रपिता ‘ कहा और शायद इस राष्ट्र सेवा के लिये ही राष्ट्रवादी नाथूराम गोडसे ने उन्हें गोली मारने से पहले चरणवंदन किया था.
पर सच ये भी है कि वे अपने देश में सर्वाधिक विवादास्पद और घृणा किये जाने वाले व्यक्तित्व हैं. ऐसा क्यों? शायद इसका मूल कारण स्वयं गांधीजी के व्यक्तित्व का दोहरापन है जिसके विभिन्न स्याह पहलू जिसमें उनके तथाकथित ब्रह्मचर्य के प्रयोग भी शामिल हैं, समय के साथ भारतीय जनता के सामने खुलते गये जिनके चलते वे अपने खुदके परिवार व देश में घृणित हो गये.
दरअसल उनके विरुद्ध ये घृणा उनके सिद्धांतों और आचरण के दोहरे व्यवहार के कारण उत्पन्न हुई और इस व्यक्तित्व का कारण खुद उनकी एक संत और राजनेता बनने की दोहरी महत्वाकांक्षा थी जिसने ना तो उन्हें संत बनाने दिया और ना राजनेता.
ये उनके सिद्धांतों व कर्तत्व का विरोधाभास ही है कि गोखले जैसे ब्रिटिश समर्थक नेता को गुरू मानने के बावजूद गांधी ने एजेंडा तिलक का पकड़ा जिससे वे युवा कार्यकर्ताओं के हीरो बन सके और बने भी.
उनका दूसरा विरोधाभास सामाजिकता का था. प्रथम कांग्रेस उद्बोधन में राजाओं, महाराजाओं और सेठ साहूकारों और इलीट क्लास पर तंज कसने वाले गांधी सदैव बिडलाओं व बजाजों के पैसे पर पलते रहे और नेहरू जैसे इलीट क्लास के धूर्त से सम्मोहित रहे.
धार्मिक जीवन का विरोधाभास देखिये कि सभी धर्म एक ही हैं का मंत्र जपने वाले गांधी खुद के बेटे के इस्लाम कुबूल कर लेने पर तिलमिला गये और आर्यसमाजियों से उनकी वापसी के लिये गिड़गिड़ाए.
उनकी सादगी के विरोधाभास को खुद सरोजिनी नायडू ने यह कहकर व्यक्त किया था कि गांधीजी की गरीबी को बनाये रखने के लिये बहुत पैसा खर्च करना पड़ता है.
उनका बहुचर्चित अहिंसा का सिद्धांत भी जीवन भर पाखंड का शिकार रहा. उनका मूल व्यक्तित्व प्रतिशोधी व हिंसक था परंतु उन्होंने अपने प्रतिशोधी स्वभाव को अहिंसा की चाशनी में लपेट कर संसार के सामने रखा —
“मेरी बात मानो वरना मैं तुम्हें मार दूँगा” की जगह उन्होंने दूसरा तरीका अपनाया ,
“मेरी बात मानो वरना मैं खुद को मार दूँगा.”
वे कभी भी भगतसिंह और नेताजी की इस बात को समझने के लिये तैयार ही नहीं हुये कि अहिंसा धर्म व्यक्तिगत स्तर पर तो ठीक है परंतु राष्ट्रीय संदर्भ में उसका विशेष महत्व नहीं.
उनकी अहिंसक हिंसा का शस्त्र इतना सूक्ष्म था कि लोग समझ ही नहीं सके और सबसे बुरी बात ये थी कि इस हथियार को उन्होंने कभी अपने विरोधियों पर नहीं बल्कि अपनों पर ही चलाया. कभी अपनी संतान को शिक्षा से वंचित रखकर, कभी अम्बेडकर को झुकाकर, कभी नेताजी को अध्यक्ष पद से हटने के लिये मजबूर करके और कभी नेहरू के पेक्ष में सरदार को प्रधान मंत्री पद छोड़ने के लिये आदेश देकर और कभी कलकत्ता में सुहरावर्दी और उसके गुंडों का प्रतिरोध कर रहे बंगाली युवकों से हथियार रखवाकर.
परंतु उनकी इस अहिंसा का ना तो कभी मुस्लिमों पर और ना अंग्रेजों पर कोई प्रभाव पड़ा.
उनका राजनैतिक विरोधाभास देखिये कि स्वयं सत्ता की जिम्मेदारी ना उठाकर संतत्व का चोला ओढ़ लेते हैं पर सरकार के हर कामकाज में टांग अड़ाते हैं चाहे वो 55 करोड़ पाकिस्तान को देने का मसला हो या दिल्ली की मस्जिदों को सरकारी पैसे से मरम्मत कराना हो. यहां मजे की बात ये है कि दंगों में क्षतिग्रस्त मंदिरों की मरम्मत पर मौन निषेध कर देते हैं.
हिंदुओं को मुस्लिमों के सामने ‘अपनी स्त्रियों को पेश कर उन्हें संतुष्ट’ करने की सलाह देने वाले’ अहिंसक गांधी ‘ बेदर्दी से सर्दी बारिश में शरणार्थियों को पुलिस द्वारा मस्जिदों से बाहर निकलवाने में किसी भी ‘ हिंसा ‘ को तनिक भी महसूस नहीं करते.
पर इस सबके बावजूद प्रश्न ये है कि इस देश की तत्कालीन समय की जनता और पूरी दुनियां ने उन्हें सिर पर क्यों बिठाया ? ऐसे विरोधाभासों से भरे गांधी ” मास लीडर ” कैसे बन गये ?
इसका जवाब अंग्रेजों के ‘बनिया चरित्र’ और तत्कालीन भारतीय जनता के सामूहिक हीनताबोध में छिपा था.
अंग्रेज़ों की ‘सेफ्टी वॉल्व’ रही कांग्रेस तिलक जैसे नेताओं और युवा कार्यकर्ताओं के कारण बागी हो रही थी और ऐसे में पहले दक्षिण अफ्रीका और फिर चंपारण की सांयोगिक सफलता ने उनको युवा कार्यकर्ताओं की आशा का केंद्र बना दिया.
और कांग्रेस उनके हाथ की कठपुतली बन गयी. तिलक के जाने के बाद तो वे एकदम निरंकुश हो गये और हर उस शख्स को किनारे कर दिया जिसने उनकी सनकी सिद्धांतों की हां में हां नहीं मिलाई.
इसके बाद अंग्रेजों ने उनको ‘पहचान’ लिया और मनचाहे तरीके से प्रयोग करते रहे शायद इसीलिये ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ( शायद लॉयड जॉर्ज ) हिटलर की इस बात पर रहस्यमय तरीके से मुस्करा दिये थे कि वे लोग इस डेढ़ पसली के आदमी को गोली क्यों नहीं मार देते?
चूँकि ब्रिटिश साम्राज्य विश्व के प्रत्येक भाग में फैला हुआ अतः गांधी की पहचान विश्वव्यापी होनी ही थी.
जहां तक भारतीय जनता में उनकी पैठ का प्रश्न है उसे भारतीयों के अवचेतन में छिपे सामूहिक मनोविज्ञान के एक वर्तमान उदाहरण से समझा जा सकता है.
जैसे वर्तमान में “दलितपुत्री मायावती” द्वारा हीरे मोतियों के आभूषण पहनने और ब्राह्मणों से पैर छुवाने से दलितों विशेषतः ‘चमारों’ में एक सामूहिक ‘मानसिक तृप्ति’ उत्पन्न हुई जिसने उसे मायावती का और अधिक कट्टर समर्थक बना दिया.
ठीक उसी तरह एक कृशकाय, लंगोटी में लिपटे गांधी को अंग्रेज वायसराय से बराबरी से मिलते, सौदेबाजी करते देख अपने हीनताबोध से ग्रसित भारत के जनमानस ने ‘मानसिक संतुष्टि’ का अनुभव किया. गुलामी के हीनताबोध व व्यक्तिपूजा की भारतीय परंपरा की इसी कुरीति ने लंगोटीधारी गांधी को करोड़ों फटेहाल लोगों का और अंग्रेजीभाषी, लंदन रिटर्न बैरिस्टर गांधी को मध्यम वर्ग का नेता बना दिया.
जहां तक आइंस्टीन, मार्टिन लूथर जैसे महापुरुषों के गांधी के संबंध में उद्गारों की बात है उन्हें गांधी के बारे में उतना ही पता था जितना अंग्रेजों ने विश्व में प्रचारित किया और तबसे अब तक हर सरकार, हर नेता यहां तक कि संघ व भाजपा के नेता भी अंग्रेजों की इस अनचाही विरासत को ढोने के लिये बाध्य हैं क्योंकि अंग्रेजों से लेकर अंतिम कांग्रेसी सरकार तक एक साजिश के तहत उनका महिमामंडन किया गया और किसी अन्य महापुरुष व उनके सिद्धांतों पर चर्चा तक नहीं की गयी वरना शायद आज विदेशों में भगत सिंह की प्रतिमाएं लगी होतीं और नेताजी को रहस्यमय गुमनामी में ना मरना पड़ा होता.