श्री राम के नाम के साथ मर्यादा पुरूषोत्तम भी लगाया जाता है. पुरुषों में उत्तम होने के साथ साथ मर्यादित जीवन के वे श्रेष्ठ उदाहरण हैं, जिन्होंने बिना किसी बात के चौदह वर्ष वनवास में बिताये.
उन्हे भी बाली का वध ही करवाना पड़ा था और रावण के साथ भी युद्ध लड़ना पड़ा था. उनके पूरे जीवन में कोइ ऐसा प्रसंग नजर नहीं आता जब उन्होंने किसी राक्षस के साथ अहिंसात्मक तरह का कोई सफल प्रयोग किया हो.
सोलह कलाओं से संपन्न श्री कृष्ण ने जरासंध से लेकर शिशुपाल को कई बार नज़रअंदाज़ किया मगर अंत में वही करना पड़ा जो कंस के साथ किया था.
महाभारत के लिये भी पूरी कोशिश की कि किसी तरह युद्ध टल जाये मगर अंत में धर्म की रक्षा के लिये महाभारत हुआ. उनके जीवन मेँ भी कोई ऐसा प्रसंग नजर नहीं आता कि किसी दानव ने अहिंसा से अधर्म छोड़ा हो.
जब द्वापर और त्रेता में अधर्मी इतने अराजक थे, तब माता सीता और द्रौपदी सुरक्षित नहीं थी तो इस कलयुग में यह कैसे संभव है. कलयुग का दानव तो अधिक दुष्ट और बहुरूपिया है, उसके अधर्म की कोई सीमा नही.
हमने तो कई शताब्दी ग़ुलामी में भीषण अत्याचार सहे. इसके बावजूद हमे अहिंसा की घुट्टी पिलायी गयी, वो भी पूरी तबियत से. और इस तरह से पूरी क़ौम को कायर बना दिया.
अभी पिछले दिनों बँटवारे का इतिहास पढ रहा था, उस दौरान जब हिंदू महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनायें बढ़ने लगी और इसे अहिंसा के पुजारी को बताया गया तो जो उनकी प्रतिक्रिया आयी उसे सुनकर कोइ भी क्रोधित होगा.
मगर हम लोगों ने ना केवल सहा बल्कि इतिहास में इसे अंकित करने की जगह दबाने छिपाने का काम भी किया.
विश्व इतिहास में ऎसी मूर्खता का कोई दूसरा उदाहरण नहीं. तारीख़ गवाह है कभी कोई युद्ध अहिंसा से नहीं जीता गया. मगर आज भी हम अहिंसा का पाठ पढ़ने के लिये अभिशप्त हैं.
यहाँ कोई मानवता और सर्वनाश का ज्ञान ना बाँटे, क्योंकि यह राक्षसों को कभी समक्ष ना आयी है ना आयेगी.
बहरहाल, जो अब भी अहिंसा के टॉनिक से अपनी-अपनी माता सीता की सुरक्षा की ग़लतफ़हमी पाले बैठे हैं उनके लिये दो शब्द कहना ही काफ़ी है, ‘हे राम’.