किस्सा-1
महात्मा गांधी और ओशो की दो बार मुलाक़ात हुई थी. ये प्रसंग दूसरी मुलाक़ात का है. खुद रजनीश ने इसका जिक्र किया है. यह ब्रिटिश इंडिया का वह दौर था जब पूरे देश में स्वतंत्रता संग्राम उफान पर था. दादी के दिए तीन रुपए लेकर स्टेशन आए थे ओशो.
उस वक्त ओशो की उम्र करीब दस साल थी. उन्हें ट्रेन देखना था. वे स्टेशन पहुंच गए, उनकी जेब में दादी के दिए 3 रुपए थे. ट्रेन 30 घंटे लेट थी. स्टेशन से सारे लोग वापस जा चुके थे. पर ओशो वहीं बैठे रहे. स्टेशन मास्टर ने उन्हें टोका भी कि तुम सुबह से ही ट्रेन का इंतज़ार कर रहे हो.
काफी देर बाद ट्रेन पहुंची और स्टेशन मास्टर ने ओशो को गांधी से मिलवाया. गांधीजी दान पेटी लिए हुए थे. ओशो की जेब में तीन रुपए थे. गांधीजी ने कहा- ये पैसे देश के गरीब लोगों के लिए इस पेटी में डाल दो. कुछ सवाल जवाब के बाद ओशो ने रुपए दान पेटी में डाल दिए. दरअसल, गांधी जी ने कहा था कि ये रुपए गरीब लोगों की मदद के लिए हैं.
ओशो ने पेटी में रुपए डाले और गांधीजी के हाथ से पेटी छीन ली. उन्होंने कहा मेरे गांव में बहुत गरीब हैं. मैं उनमें ये पैसे बांट दूंगा. हालांकि, थोड़ी देर बाद रजनीश ने पेटी लौटाते हुए कहा – आप ही रख लीजिए, क्योंकि आप सबसे ज्यादा गरीब हैं, दरिद्र नारायण.
इस दौरान गांधी जी के साथ कस्तूरबा भी मौजूद थी. बा ने मजाक में कहा – आज आपको बराबरी का कोई मिला. आप लोगों को धोखा देते हो. अब इसने आपका पूरा बॉक्स ही ले लिया. ये बहुत अच्छा हुआ, क्योंकि हमेशा यह बक्सा ढोते-ढोते मैं थक गई.
किस्सा-2
गांधी गीता को माता कहते हैं, लेकिन गीता को आत्मसात नहीं कर सके. क्योंकि गाँधी की अहिंसा युद्ध की संभावनाओं को कहाँ रखेगी? तो गांधी उपाय खोजते हैं, वह कहते हैं कि यह जो युद्ध है, यह सिर्फ रूपक है, यह कभी हुआ नहीं . यह मनुष्य के भीतर अच्छाई और बुराई की लड़ाई है. यह जो कुरुक्षेत्र है, यह कहीं कोई बाहर का मैदान नहीं है, और ऐसा नहीं है कि कृष्ण ने कहीं अर्जुन को किसी बाहर के युद्ध में लड़ाया हो.
यह तो भीतर के युद्ध की रूपक-कथा है. यह ‘पैरबेल’ है, यह एक कहानी है. यह एक प्रतीक है. गांधी को कठिनाई है. क्योंकि गांधी का जैसा मन है, उसमें तो अर्जुन ही ठीक मालूम पडे़गा. अर्जुन के मन में बड़ी अहिंसा का उदय हुआ है. वह युद्ध छोड़कर भाग जाने को तैयार है. वह कहता है, अपनों को मारने से फायदा क्या ? और वह कहता है, इतनी हिंसा करके धन पाकर भी, यश पाकर भी, राज्य पाकर भी मैं क्या करूँगा? इससे तो बेहतर है कि मैं सब छोड़कर भिखमंगा हो जाऊँ. इससे तो बेहतर है कि मैं भाग जाऊँ और सारे दु:ख वरण कर लूँ, लेकिन हिंसा में न पड़ूँ. इससे मेरा मन बड़ा कँपता है. इतनी हिंसा अशुभ है.
कृष्ण की बात गांधी की पकड़ में कैसे आ सकती हैं ? क्योंकि कृष्ण उसे समझाते हैं कि तू लड़. और लड़ने के लिए जो-जो तर्क देते हैं, वह ऐसा अनूठा है कि इसके पहले कभी भी नहीं दिया गया था. उसको परम अहिंसक ही दे सकता है, उस तर्क को.
कृष्ण का यह तर्क है कि जब तक तू ऐसा मानता है कि कोई मर सकता है, तब तक तू आत्मवादी नहीं है. तब तक तुझे पता ही नहीं है कि जो भीतर है, वह कभी मरा है, न कभी मर सकता है. अगर तू सोचता है कि मैं मार सकूँगा, तो तू बड़ी भ्रांति में है, बड़े अज्ञान में है. क्योंकि मारने की धारणा ही भौतिकवादी की धारणा है. जो जानता है, उसके लिए कोई मरता नहीं है. तो अभिनय है- कृष्ण उससे कह रहे हैं-मरना और मारना लीला है, एक नाटक है.
इसलिए कृष्ण को जिन्होंने पूजा भी है, जिन्होंने कृष्ण की आराधना भी की है, उन्होंने भी कृष्ण के टुकड़े-टुकड़े करके किया है. सूरदास के कृष्ण कभी बच्चे से बड़े नहीं हो पाते. बड़े कृष्ण के साथ खतरा है. सूरदास बर्दाश्त न कर सकेंगे. वह बाल कृष्ण को ही..क्योंकि बालकृष्ण अगर गाँव की स्त्रियों को छेड़ आता है तो हमें बहुत कठिनाई नहीं है. लेकिन युवा कृष्ण जब गाँव की स्त्रियों को छेड़ देगा तो फिर बहुत मुश्किल हो जाएगा.
फिर हमें समझना बहुत मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि हम अपने ही तल पर तो समझ सकते हैं. हमारे अपने तल के अतिरिक्त समझने का हमारे पास कोई उपाय भी नहीं है. तो कोई है, जो कृष्ण के एक रूप को चुन लेगा; कोई है, जो दूसरे रूप को चुन लेगा. गीता को प्रेम करनेवाले भागवत की उपेक्षा कर जाएँगे, क्योंकि भागवत का कृष्ण और ही है. भागवत को प्रेम करनेवाले गीता की चर्चा में पड़ेगे, क्योंकि कहाँ राग-रंग और कहाँ रास और कहाँ युद्ध का मैदान ! उनके बीच कोई ताल-मेल नहीं है.
शायद कृष्ण से बड़े विरोधों को एक-साथ पी लेनेवाला कोई व्यक्तित्व ही नहीं है. इसिलए कृष्ण की एक-एक शक्ल को लोगों ने पकड़ लिया है. जो जिसे प्रीतिकर लगी है, उसे छांट लिया है, बाकी शक्ल को उसने इंकार कर दिया है.
किस्सा-3
आज में जिस किताब का जिक्र करने जा रहा हूं, उसके बारे में किसी ने सोचा नहीं होगा कि मैं बोलूंगा. वह है: महात्मा गांधी की आत्मकथा. माय ऐक्सपैरिमैंट विथ ट्रुथ. सत्य को लेकर उनके प्रयोगों के विषय में बात करना सचमुच अद्भुत है. यह सही समय है.
आज महात्मा गांधी के बारे में मैं कुछ अच्छी बातें कहता हूं, एक: एक भी व्यक्ति ने अपनी जीवनी इतनी ईमानदारी से, इतनी प्रामाणिकता से नहीं लिखी. आज तक जो सबसे प्रमाणिक जीवनी लिखी गई उसमें से एक है.
जीवनी बड़ी विचित्र चीज है. या तो तुम अपनी प्रशंसा करना शुरू कर दो या अत्यंत विनम्र बनो. लेकिन महात्मा गांधी ये दोनों बातें नहीं कहते. वे सरल है; सिर्फ तथ्य कथन करते है, एक वैज्ञानिक की भांति. उन्हें हम बात का बहुत अहसास है कि यह उनकी जीवनी है. वे उन सब बातों को कहते है जिन्हें आदमी दूसरों से छिपाना चाहता है.
लेकिन इसका शीर्षक गलत है. सत्य के साथ प्रयोग नहीं किये जा सकते. या तो आप उसे जान सकते हो या नहीं जान सकते. लेकिन उसके प्रयोग नहीं कर सकते. यह शब्द ‘’प्रयोग’’ ही वस्तुनिष्ठ विज्ञान के जगत का शब्द है. व्यक्ति निष्ठता के साथ प्रयोग नहीं कर सकते. ध्यान रहे, व्यक्ति निष्ठता (Subjectively) को, प्रयोग या निरीक्षण के किसी भी तल पर उतारना संभव नहीं है.
अस्तित्व में व्यक्तिनिष्ठता सबसे रहस्यपूर्ण घटना है. और उसका रहस्य यह है कि वह सदा पीछे हटता चला जाता है. तुम जिसका भी निरीक्षण करते हो वह ‘’वह’’ नहीं है: वह व्यक्तिनिष्ठता नहीं है. व्यक्तिनिष्ठता निरीक्षक है, निरीक्षण की जानेवाली वस्तु नहीं है. सत्य के प्रयोग नहीं किए जा सकते क्योंकि प्रयोग केवल वस्तुओं के, विषयों के किये जाते है. चेतना के नहीं.
महात्मा गांधी ईमानदार और भले आदमी थे. लेकिन वे ध्यानी नहीं थे. और अगर कोई ध्यानी नहीं है तो कितना ही अच्छा क्यों न हो, सब बेकार है. उन्होंने जीवन भर प्रयोग किए और कुछ भी उपल्बध न हुआ. वे उतने ही अज्ञानी मरे जितने कि थे. यह दुर्भाग्य है क्योंकि इतना संगठित, इतना ईमानदार, इतना प्रामाणिक आदमी मिलना मुश्किल है. सत्य को खोजने की उनकी इच्छा प्रबल थी. लेकिन वही इच्छा बाधा बन गई.
सत्य मेरे जैसे लोगों को मिलता है जो उसकी फिक्र ही नहीं करते. जो सत्य की ओर ध्यान भी नहीं देते. मेरे द्वार पर परमात्मा भी दस्तक दे तो मैं खोलनेवाला नहीं हूं, द्वार खोलने का उपाय भी उसे ही खोजना होगा. सत्य ऐसे आलसी लोगों के पास आता है. इसलिए मैं स्वयं को ‘’बुद्धत्व के लिए आलसी मनुष्य का मार्गदर्शक’’ कहता हूं.
मुझे इस आदमी से हमदर्दी है यद्यपि मैंने उसकी राजनीति की, सामाजिक विचारों की और समय के चरख़े को पीछे की और मोड़ने की मूढ़ धारणाओं की हमेशा आलोचना की है. वे चाहते थे कि मनुष्य पुन: आदिम हो जाए. वे सभी टैकनॉलॉजी के खिलाफ थे. यहां तक कि रेलगाड़ी और डाक-तार के भी विरोध में थे. विज्ञान के बगैर आदमी बंदर हो जायेगा. माना कि बंदर ताकतवर होता है, लेकिन बंदर आखिर बंदर ही है. आदमी को आगे बढ़ना है.
मुझे किताब के शीर्षक पर भी ऐतराज है. क्योंकि यह सिर्फ शीर्षक नहीं है, उनके पूरे जीवन का सारांश है. वे सोचते थे, चूंकि वे इंग्लैड में पढ़े थे, वे आदर्श भारतीय अंग्रेज थे. बिलकुल विक्टोरियन. ये विक्टोरियन लोग नर्क में जाते हैं. गांधी बहुत भद्र व्यक्ति थे, शिष्टाचार और तहजीब से भरपूर. हर तरह की अंग्रेज मूढताएं……
महात्मा गांधी इंग्लैड में पढ़े. शायद उसी कारण वे इतने उलझ गये. बेहतर होता अगर वे अशिक्षित रहते. फिर वे सत्य के प्रयोग न करते, सत्य का अनुभव करते.
सत्य को जानना हो तो उसको अनुभव करना चाहिए, उसके प्रयोग नहीं.
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