मेरे सपने मुझे सोने नहीं देते
कभी रात की चादर पर पड़ी
सलवटों से चुभते हैं
तो कभी दिन के आसमान से
जलती धूप से बरसते हैं…
मैं अक्सर रातों में उठकर
उन सलवटों को हटाता हूँ
और भरी दोपहर
काला चश्मा पहने निकलता हूँ…
यदि रात एक करवट में निकाल भी लूँ
तो पीठ का दर्द बनकर
दिन भर सताते हैं
चश्मे से आँखें तो बचा ली
लेकिन बालों में चाँदी से चमचमाते हैं…
एक छोटी कैंची से
बालों में उग आए सपनों को काट लेता हूँ
आईने के सामने फिर से जवान हो जाता हूँ
पीठ का दर्द तो किसी को दिखाई नहीं देता
सो अकेले ही सहन कर जाता हूँ…
मेरे सपने जो मुझे सोने नहीं देते
नींद की गोली से उन्हें भगाता हूँ
वो जब तक चले नहीं जाते
सोने का स्वांग रचता हूँ…
वो जाते भी कहाँ हैं
कभी दराज में पुराने खत की तरह फड़फड़ाते हैं
तो कभी तकिए के कोने को गीला कर जाते हैं…
और जब दुनिया से दूर
खुद को तन्हा पाता हूँ
तो मेरे सपने जो मुझे सोने नहीं देते
उन्हें अपने सिरहाने रखकर सो जाता हूँ.