गुजरात के एक शासक हुआ करते थे, उनका नाम था कर्ण. बड़े वीर और प्रतापी थे मगर चूँकि मनुष्य थे इसलिये दुर्गुणों से भी खाली नहीं थे. इसलिये अपनी कमजोर इन्द्रियों के वश में आकर एक दिन उन्होंने अपने किसी मंत्री की पत्नी को बलात अपने अधीन कर लिया.
बाकी लोग तो उनके डर से कुछ नहीं बोल सके पर उनके प्रधानमंत्री जो शास्त्रों के मर्मज्ञ थे, प्रतिकार कर उठे. राजा के पास जाकर उनसे कहा कि महाराज आपने जो किया है वो अधर्म है पर राजा अपने उस मंत्री की पत्नी को छोड़ने को तैयार नहीं थे.
इससे आगबबूला होकर प्रधानमंत्री ने अपने पद और राज्य का त्याग कर दिया और शिखा बाँध कर कसम खाई कि इस अधर्मी राजा को सबक सिखा कर ही अपने राज्य में वापस लौटूंगा.
वो प्रधानमंत्री अब इस खोज में लग गये कि किसका सहारा लेकर इस राजा को सबक सिखाया जाये और प्रतिशोध की अग्नि में जलते हुए वो एक मुग़ल बादशाह से मदद मांगने चले गये और कहा कि उस दुष्ट राजा कर्ण को सबक सिखाने के लिये मुझे आपकी मदद चाहिये.
वो बादशाह तो इसी ताक में था उसने प्रधानमंत्री के सामने मीठी-मीठी बात की और उससे कहा कि आपके उस अधर्मी राजा को सबक सिखाने में मैं आपकी हरसंभव मदद करूँगा और उसने धीरे-धीरे उस प्रधानमंत्री से राजा कर्ण के राज्य के समस्त भेद प्राप्त कर लिये और विशाल सेना सजाकर गुजरात की ओर चढ़ दौड़ा.
अब चूँकि राज्य के सारे भेद उस पर जाहिर थे इसलिये उसे गुजरात में रौंदने में ज्यादा वक़्त नहीं लगा. सैकड़ों वर्षों तक मुस्लिम आक्रमण से अपने राज्य को अक्षुण्ण रखने वाला वो राजा अपने प्रधानमंत्री की गद्दारी के चलते परास्त हुआ.
अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने के बाद मद में चूर प्रधानमंत्री विजयी भाव लिये अपने राज्य लौटा तो वहां उसकी प्रतीक्षा कर रही थी उसके अपने परिजनों की लाशें, वहशियों द्वारा रौंदी गये उसके अपने परिवार की महिलाओं की क्षत-विक्षत लाशें, गिद्धों द्वारा नोचे जा रहे राज्य के प्रजाजनों की लाशें, शील-भ्रष्ट अनगिनत स्त्रियाँ, कटी हुई गौओं के अंग, टूटी हुई देव-प्रतिमाएं पर पराधीन हुआ मातृभूमि.
कर्ण व्यक्तिगत रूप से पतित थे पर उनका राष्ट्रीय चरित्र उज्जवल था इसी कारण मुगलों की हिम्मत नहीं थी कि उसके राज्य की ओर आँख उठा कर भी देख सकें. उधर उस प्रधानमंत्री का व्यक्तिगत चरित्र तो उज्जवल था पर उसमें राष्ट्रीय चरित्र का अभाव था इसलिये किसी एक कन्या के शीलरक्षण के लिये उस प्रधानमंत्री ने लाखों हिन्दू कन्याओं के शील-भंग को आमन्त्रण दे दिया और फिर जो हुआ वो सामने था.
यहाँ उस प्रधानमंत्री के चरित्र से अपने अरुण शौरी को भी क्यों न जोड़ा जाये? हम दक्षिणपंथियों में बौद्धिक चिंतकों का जहाँ प्रायः अभाव रहता है उस अभाव में अरुण शौरी अभिमन्यु की तरह थे.
धुर वामपंथ की शठता से लेकर सेमेटिक मजहबों को अकेले रौंद कर रख देने की क्षमता रखने वाले अरुण शौरी व्यक्तिगत स्वार्थ में इतने नीचे गिर गये कि आज वो उस खेमे में जाकर खड़े हो गये हैं जहाँ के लोग भारत और हिन्दू के शरीर को लाश में तब्दील कर नोंचने को आतुर बैठे हैं.
उस खेमे में जाकर शौरी ने क्या मृतप्राय होती उस विचारधारा को संजीवनी देने का अपराध नहीं किया है?
राष्ट्र, व्यक्तिगत मान-अपमान और हानि-लाभ इन सबसे ऊपर होता है. आज नरेंद्र मोदी चाहे जैसे भी हों पर उनकी उपस्थिति हिन्दू और भारत के अस्तित्व के लिए जरूरी है.
शौरी अकेले नहीं है, मोदी जी की कार्यशैली या कार्यों में यथायोग्य प्रगति न होता देख कई लोग हैं जो आज उनसे रुष्ट हैं पर व्यक्तिगत कोप को राष्ट्रीय आपदा में बदलने का अपराध हर कोई नहीं कर रहा है.
अरुण शौरी दक्षिणपंथी खेमे के सूर्य थे और हैं, मगर अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के अधीन वो जिस राह पर चल चुके हैं वहां झुण्ड के झुण्ड राहू और केतु उनकी अर्जित कृति और यश को ग्रसने को बेताब बैठे हैं.
तय अरुण शौरी को करना है कि तरजीह वो राष्ट्रीय हित को देंगे या अपने व्यक्तिगत हितों को? फिर इतिहास उन्हें इसी रूप में याद रखेगा.