जब इतनी खेती-किसानी की बात हो रही है तो फिर ज़रा जड़ में घुसा जाय…
बचपन में पढ़ाया जाता था कि भारत की 80% जनसंख्या किसान है… फिर आंकड़ा गिर कर 70 पर पहुँचा और आज 53% है… विश्व के किसी भी संपन्न देश में यह आँकड़ा 10% से नीचे है… पर भारत में मामला छिपी हुई किसानी का है.
किसी और का उदाहरण देने से बेहतर होगा अपने परिवार का ही उदाहरण दूँ… हमारे पास पूर्वी उत्तर प्रदेश में करीबन बीस बीघा खेती की जमीन है.
अब बीस बीघे से परिवार की रोटी तो चल सकती है पर आज के उपभोक्तावादी युग में अन्य आवश्यकताएं कदापि पूरी नहीं होंगी. इसलिए हम तीन भाइयों में से कोई भी पूर्णकालिक किसान नहीं है. यही हाल गाँव के अन्य परिवारों का है…
यदि यही भूमि का टुकड़ा 20 बीघा न होकर 200 बीघा हो जाय तब? तब तो मज़े ही आ जाय…
फिर तो मेरे लिए भी कनाडा में नौकरी करने से बेहतर विकल्प होगा कि अपना दिमाग खेती में लगा कर नौकरी से ज्यादा पैसे अपने घर पर रहकर पैदा करूँ.
माने जो भूमि दस परिवारों के बीच में बंटकर उपेक्षित है वही यदि किसी एक परिवार के पास हो तो अपने आप में एक बड़े कार्पोरेट पद से भी अच्छी जीविका का सृजन कर देती है…
जरा सोचिये जिन परिवारों के पास यही भूमि का दुकड़ा दो बीघा होगा वो क्या करेंगे? उनके लिए तो यह एक जिम्मेदारी से अधिक कुछ नहीं है.
यह स्थिति क्यों और कैसे उत्पन्न हुई?
आज़ादी के बाद जिनके पास ज्यादा भूमि थी उसे कांग्रेस ने छीन-छीन कर मजदूरों में बाँट दिया… अपना वोट बैंक जो बनाना था.
मतलब न तो किसी को किसान रहने दिया गया, न ही मजदूर… लोगों को बीच का बनाकर छोड़ दिया गया.
इस बेवकूफी की हरकत को नाम दिया गया भूमि सुधार, जिसके फलस्वरूप आज अधिकांश किसानों की हालत साँप-छछुंदर वाली है…
पैतृक भूमि को न त्यागने का लोभ मन में रहता है और इतना छोटा भूमि का टुकड़ा जीविका के लिए पर्याप्त है नहीं.
समाजवाद के नाम पर यह सब भले ठीक लगे पर जब आप कृषि को एक उद्योग के रूप में देखेंगे तो यह हरकत कृषि के आत्मघात से ज्यादा कुछ नहीं कही जाएगी.
समर्थन मूल्य और ऋण वापसी सिर्फ समस्या पर तात्कालिक पर्दा डालने के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं.
यदि आप को उन्नत कृषि करना है तो खेतों का आकार बड़ा करना होगा… तभी आधुनिक मशीनों का प्रयोग संभव होगा.
तभी इस क्षेत्र में मेधावान लोग अपना समय दे पाएंगे… तभी दीर्घकालिक रूप से देश की अन्न आवश्यकता पूर्ण की जा सकेगी.
आज के बाजारवाद वाले युग में जो आपसे सस्ता और उन्नत उगाएगा वह बाजार पर राज करेगा. जैसे दलहन का बाजार कनाडा और आस्ट्रेलिया से आयात करके चल रहा है.
आज की परिस्थिति में सामूहिक खेती का प्रचलन ही इस दिशा में कुछ कर सकता है. किसान संगठन यदि वाकई में संगठित हैं तो इस दिशा में प्रयास करें…