“चतुर बनिया” क्या गाली है? नहीं. क्या अपशब्द है? नहीं. क्या असंवैधानिक शब्द है? नहीं. तो फिर कुछ लोगों को इतनी तकलीफ क्यों हो रही है?
उनसे पूछना चाहिए कि फिर क्या कहा जाना चाहिए? कोई बेहतर विशेषण हो तो बतला दो. वरना चतुर बनिए की जगह व्यक्तित्व का सही चित्रण करने लगेंगे तो और तकलीफ हो जाएगी.
चतुर बनिया, सुन कर दो तरह के लोग भड़क रहे हैं.
एक – जिनकी दूकान चलती है गांधी नाम से. वे अपने ब्रांड के बारे में कुछ भी ऐसा नहीं सुनना चाहते जिससे ब्रांड की मार्केट वैल्यू कम हो जाए.
दूसरे – वे हैं जो पढ़ते नहीं. पढ़ते भी हैं तो सिर्फ इतना जितना पढ़ाया जाता है. ये वो लोग हैं जो एक बल्ला-गेंद खेलने वाले को गॉड ऑफ़ क्रिकेट बना देते हैं, फिर चाहे वो साबुन-तेल बेचे.
ये वो लोग हैं जिन्हे अगर मीडिया बता दे कि टूथब्रश में नमक होना चाहिए तो तुरंत मान लेते हैं. ये हिटलर को तो दुनिया का सबसे दुष्ट तानाशाह मानते हैं मगर असली तानशाह स्टालिन और माओ की अनदेखी कर देते हैं.
ये इतिहास के पन्नो को पलटना भी नहीं चाहते. विश्व घटनाक्रम को संजय की निगाह से नहीं धृतराष्ट्र की निगाह से देखते भी हैं और समझते भी हैं.
किसी ने कह दिया कि अंग्रेज अहिंसा से डर कर भाग गए थे तो बस मान लिया कि साबरमती के संत ने कमाल कर दिया.
अरे इतना तो पूछ लेते के इसी अहिंसा के पुजारी ने द्वितीय विश्वयुद्ध में अपनी लाठी क्यों नहीं भेज दी थी. कम से कम हजारों भारतीय सैनिक किसी और के लिए लड़ते हुए नहीं मारे जाते.
अरे यह कैसा पिता था जिसने अपने घर को बंटने दिया और फिर बंटवारे में लाखों को मरने दिया.
सवाल तो कई हैं, मगर किसी एक व्यक्ति को देवता बनाकर पूजने वालो की आँखे बंद हैं और साथ ही दिमाग के दरवाजे भी.
ऐसे आँख के अन्धो और बंद दिमाग के लोगों से अगर कोई सवाल पूछ ले तो ये लोग सवाल पूछने वाले को ही भक्त और संघी कहने लगते हैं.
मगर हम तो बुरा नहीं मानते, क्योंकि हमें मालूम है कि भक्त और संघी कोई गाली या अपशब्द नहीं. इसलिए चतुर बनिए कहने भर से हंगामा मत खड़ा करो.
वरना जिसे अब तक शक नहीं था वे भी सोचने को मजबूर होंगे कि दाल में कुछ काला नहीं बल्कि अब तक पढ़ाई गई इतिहास की सारी दाल ही काली है.