“नरा टड़ना” एक पूरी तरह विशुद्ध देहाती मर्ज का नाम है. इसके मर्म को वही समझ सकता है जो सच में देहाती हो. पर आज की विड़म्बना यह है कि कोई भी अपने को देहाती कहलाना पसन्द नहीं करता. सब अपने को शहरी या ग्रामीण कहलाने में गौरवान्वित महसूस करते हैं.
वर्तमान में किसान आन्दोलन की पृष्टभूमि की असली मूल समस्या समझने के पहले “देहात” और “ग्राम” के बीच का भेद समझना होगा. देहात नाम आते ही उस परिवेश का चित्र उभर आता है जहाँ पर चारों ओर जंगल बीच मे बैलगाड़ियों के चलने से बनी गढारें हुआ करती थी.
देहात के प्राकृतिक माहौल में सुगंधित मन्द मन्द वायु बहती थी. प्रकृति स्वंय इन देहाती स्थान पर अपना सौन्दर्य सजाती रहती थी. मिट्टी की सौंधी हवा, नदी की कल कल ध्वनि का कर्णप्रिय संगीत, बेर, करोंदे, खजूर, खिन्नी, जामुन और अमियों की मीठी सुगन्ध. कच्ची हरी इमली का खट्टा चरखा स्वाद, अधपके कच्चे आंवलों को दांतों से चबाकर, हथेलियों की चुल्लू में रेत के बने गड़्ड़े से ऊकड़ू बैठ कर पानी पीना, आंवले की खटास में से पानी के साथ मिठास निकाल कर, जीभ चाट चाट कर स्वाद गटकना.
पनघट की नारियां, मन्दिरों की घंटियां, ढ़ोलक मजीरों की आवाज, देर रात तक आल्हा ऊदल के किस्से. यहाँ के लोग भोले, सहज, धर्म भीरू और अनुशासन प्रिय होते थे. ऐसे देहात अब सिर्फ पुरानी पिक्चरों में सुरैया, शमशाद बेगम के गानों के साथ ब्लेक एण्ड़ व्हाईट सिनेमा के पर्दों पर ही देखने को मिलते हैं.
हकीकत में “देहात ” में तो राष्ट्र के देह की आत्मा का निवास होता है. और देहाती तो उन सब असली कृषकों को कहते हैं, जिनकी देह में राष्ट्र की आत्मा का पवित्र निवास हैं. इन्हीं देहातियों के कारण भारतीय संस्कृति सभ्यता सैकड़ों साल गुलामी के बाद भी आज तक सुरक्षित रही. यही वह देहात और देहाती लोग थे, जो अंग्रेजों की गोलियों को अपने सीने पर खाकर, एक के मरने के बाद दूसरा आगे आकर स्वेच्छा से गोलियां खाने को तैयार रहता था. पर तिरंगे को झुकने नहीं देता था.
उस समय किसी देहाती किसान ने हाथ में पत्थर उठाकर अंग्रेज पुलिस या फौज पर नहीं फेंका. पर आज अपने को ग्रामीण कहने वाले किसान, देश की विकृत राजनीति की गर्मी से सब्ज साज होकर, यह सिद्ध कर रहे हैं वह देहाती किसान नहीं वह तो “”देश की विकृत राजनीति की गर्मी को धारण करने वाले “ग्रामीण” बन गये हैं.””
अब आईये समझें कि यह “नरा” क्या होता है ? यह “टड़” कैसे जाता है, और पुराने जमाने में इसका राम बाण इलाज कैसे किया जाता था. आज की परिस्थिति में किसान आन्दोलन का ‘नरा’ कहाँ पर है? कैसे ‘टड़’ गया है ? और इसे कैसे ठीक किया जा सकता है ?…
देहाती भाषा में जिसे “नरा” कहते हैं वह “गर्भनाल” अर्थात umbillical cord अम्लायकल नली होती है. शिशु के प्रजनन के समय इस नली को काट कर अलग कर दिया जाता है. हर व्यक्ति के पेट में इसका गोल निशान बना रहता है. इसे “नाभि” NAVEL या ” टुंड़ी ” कहते हैं.
मुझे अच्छी तरह याद है जब मैं मुश्किल से ८-९ साल का होऊंगा तो एक बार मेरे पेट में भीषण पीड़ा हुई थी. मैं दर्द से तड़प रहा था. मेरी नानी जो १०० फीसदी देहाती अनपढ विदुषी थी, उन्होंने मुझे चटाई पर सीधा लेटाया. एक पान का पत्ता मेरी टुंड़ी पर रखा और टुंड़ी के ठीक ऊपर आटे का दिया बनाकर उसमें थोड़ा घी बत्ती में रखकर जला दिया. फिर एक गोल किनोरी वाले लोटे को औंधा करके जलते हुए दिये पर पेट से चिपका कर रख दिया.
थोड़ी ही देर में मुझे लगा जैसे मेरा पेट लोटे के भीतर खींचा चला जा रहा है. चार पांच मिनिट तक पेट लोटे के अन्दर खींचा हुआ बना रहा और जैसे ही ऊंगली से पेट दबाकर नानी ने लोटे को अलग हटाया सुर्र से आवाज हुई. जब मैं उठकर बैठा तो पेट की मरोड़ और तड़पन गायब हो चुकी थी. नानी ने मुझे बताया था कि मेरा ‘नरा” टड़ गया था. इस प्रक्रिया से टड़ा हुआ ‘नरा’ एक दम ठीक हो गया.
असली में वाक्या कुछ और था, पपड़ोस के मकान में रहने वाली नीम वाली बाखल की बूढ़ी नानी ने मुझे सबेरे सबेरे महेरी खिला दी थी. फिर भैयालाल की दादी ने ज्वार की गरम गरम रोटी पर मक्खन का लौंदा रखकर, नमक बुरक कर खिला दिया था. इसके बाद मेरी शकुन बहिन मुझे अपनी सहेली मोहरबाई के साथ नदी किनारे नहाने ले गई. साथ में नाई बाखल, काछी बाखल की चार पांच किशोरियां और थी.
नदी में घण्टों उछल कूद करने के बाद, सबने मिल कर बहुत ही उम्दा मीठे बेर, करोंदे और पके पके खजूर तोड़े. मैंने खूब सारे बेर, करोन्दे, खजूर ठूंस ठूंस कर खाये. रास्ते में एक पका कबीट भी मिला मैंने आधा कबीट भी पेट में भर लिया. मेरा पेट इतना उफर गया था कि चलने में दिक्कत होने लगी.
नानी के पास आते आते तो मेरा बुरा हाल हो गया था. नानी को समझते देर नहीं लगी कि मेरे उल्टा सीधा जरूरत से ज्यादा ठूंस ठूंसकर खाने से कुपच हो गई है. इस कारण ‘नरा’ टड़ गया है. नानी ने उल्टे लोटे के भीतर जलते दिए को बुझाकर मेरा इलाज कर दिया. साथ में नसीहत भी दे दी कि अब कभी जीवन में उल्टा सीधा ठूंस ठूंस कर मत खाना.
नरा के टड़ जाने और किसान आन्दोलन में क्या तालमेल हो सकता है, यह एक दम आपके समझ में नहीं आएगा. पर जब मैं तीन जून की रात को इन्दौर स्थित चोईथराम कृषि मण्ड़ी के रास्ते अपने घर आ रहा था , तो सड़क पर पड़े ढ़ेर सारे पत्थरों को देखकर चौंक गया. देखा पास में लगी सीमेन्ट की जालियों को तोड तोडकर सड़क पर पटपटक पटक कर उपद्रवी लोग उनके एक एक किलो से भी बडे पत्थर बना कर ड़ंड़े बरसा रही पुलिस पर फेंक रहे थे. पता लगा कि यह पत्थर बरसाने बाले लड़के पास के गाँव बीजलपुर की झुग्गियों, गड़बड़ी पुलिया के पास वाली झुग्गियों और आस पास के १५ -१६ साल से लेकर २५-३० साल के नौजवान थे. चश्मदीदों का कहना है कि इस प्रकार की तोड़ फोड़, लूट पाट , दूध फेंकने, सब्जी लूटने का काम करने वाले लोगों में एक भी असली किसान नहीं है.
फिर आखिर किसानों की आड़ लेकर लूट पाट हिंसक हरकते कौन कर रहा है? इसकी जानकारी जुटाने के लिए मैं दूसरे दिन रविवार को इन्दौर से सटी सड़कों के प्रमुख गाँवों में गया और लोगों से चर्चा की. सब जगह एक ही कामन बात सुनने को मिली. पानी गिरने दीजिये बुवाई शुरू होजायेगी पूरा आन्दोलन चुपचाप ठंड़ा होजाएगा. कुछ समझदार लोगों ने बताया “यह सब तो अब आगे किसी न किसी बहाने होता ही रहेगा. क्योंकि दो साल बाद चुनाव जो आने हैं.” किसान आन्दोलन से जुडे असली किसान नेताओं से मिलने की कोशिश की, पर जो किसानों के नाम पर नेतागिरी कर रहे हैं उनमें से एक भी वास्तव में किसान नहीं है.
मैं उस समय और भी चौंक गया जब इन्दौर के आसपास के गाँवों में, मैं असली किसान और असली गाँवों को ढूंढ रहा था. इन गाँवों में मुझे ऐसे सैंकड़ों घर देखने को मिले जिनका मूल्य कई करोड़ों का है. सब जगह पक्की सीमेन्ट की सड़कें, घर के बाहर तीन तीन चार चार मंहगी कारे और एक एक गाँव में हजारों कीमती, मोटर साईकिलें देखने को मिली. सभी पक्के मकानों के ऊपर टीवी की डिश-एन्टीना, घर घर में फ्रीज, हर किशोर युवक के हाथ में कीमती मोबाईल सेमसन या एप्पल का आई फोन देखने को मिला.
गाँवों की समृद्धि देखकर पहले तो सुखद अनुभूति हुई पर यह गलत फहमी जल्दी ही दूर होगई जब मुझे पता लगा कि इन्दौर के आसपास के करोड़पतियों के तीस चालीस गाँवों में अस्सी फीसदी लोग “गरीबी रेखा से नीचे” बी पी एल कार्ड़ धारी हैं. इन सब लोगों ने अपनी अपनी जमीनें या उसका हिस्सा करोड़ों रूपयों का मूल्य लेकर भू माफिया लोगों को बेच दिया है. इन्ही जमीनों पर इन्दौर की नई नई कालोनियां और बहुमंजिल टाऊनशिप बनती जा रही है. जिन किसानों ने मंहगे दामों में जमीने बेची है लगभग ओने पौने दाम रजिस्ट्री में बताकर पूरा का पूरा पैसा ब्लेक में कमाया है.
अब उसी ब्लेकमनी के पैसे से करोड़ों रुपयों की कोठियां बना ली हैं. पर इन किसान कहे जाने वाले करोड़पति लोगों में ७० फीसदी लोग ऐसे हैं जो खुद के खेतों की फसल के गेहूं २५०० से लेकर ३००० रुपये क्विन्टल के हिसाब से बाजार में बेचते हैं. पर इनमें से अधिकांश लोग खुद के खाने के लिए सरकारी एक रूपये किलो का गेहूं और एक रूपये किलो का चावल लाकर खा रहे हैं. तुर्रा यह कि मंहगी कीमतों पर फसल बेचने की मांग करने वाले लोग अपनी फसल से हुई आमदनी पर कभी भी कोई कर या टेक्स नहीं देते हैं.
किसानों की यह मांग तर्क संगत हो सकती है कि कृषि की लागत मूल्य में वृद्धि हो गई है, इस लिये समर्थन मूल्य बढ़ाया जाए, जहाँ तक कीमतों का प्रश्न है, यह तो पूरी तरह “मांग और आपूर्ति “के सन्तुलन पर निर्भर करता है. एक समय था जब प्याज सौ रूपये प्रति किलो से ज्यादा मंहगा हो गया था और सरकार डगमगा गई थी, उस समय कोई किसान नेता आगे नहीं आया था और कहा कि हमारे प्याज की लागत मूल्य सौ रूपयों से बहुत कम है हम मंहगा प्याज नहीं बेचेगे.
किसान आन्दोलन से राजनीति में गुल्ली ड़ंड़ा खेलने वालों को शिवराज को उखाड़ने पछाड़ने का एक चोखा मौका मिल गया है. शिवराज की जन्मपत्री में भी लगता है कुछ खोटे दिन चल रहे हैं. एक तरफ तो राहू केतु की निगाह की तरह कमलनाथ, सिंधिया तथा दिग्गी की तिकड़ी लगी है. दूसरी तरफ उनकी पार्टी की भीतर घात में उनके अपने कहे जाने वाले लोग आँख मिचौली खेलकर , मुंह पर कुछ और पीठ पीछे कुछ , की छुपा – छुपी का खेल कर रहे हैं.
दबी जबान उनके अपने संघ के हमदर्द कानाफूसी करके बता रहे हैं कि नर्मदा नदी उत्थान प्रोग्राम में सी एम ने जिन हजार करोड़ रूपयों को फूंककर वाहवाही लूटने और ‘नमो नमो का महामृत्युंजय मंत्र ” का पाठ किया है , उससे उनकी पूरी मेहनत पर पानी फिर गया है. सिर्फ मीडिया को विज्ञापन और पी एम के गुण गानों से प्रशासन में काम नहीं चलता है. आज सरकारी तन्त्र पूरी तरह पंगु होगया है. बड़े बड़े आई ए एस अफसर बन गए हैं “मोम के पुतले”.
एक जिले के प्रमुख अधिकारी ने गंभीर होकर दुखी लहजे में मुझसे यहाँ तक कह दिया कि शिवराज जी ने यह सबसे बड़ी गल्ती कर दी है कि ‘किसान आन्दोलन में तोडफोड़ और हिंसक कार्यवाही करते पकड़े गये लोगों पर कोई मुकदमा दर्ज नहीं किया जायेगा ‘. इससे प्रशासन की ताकत और अधिक कमजोर हो जायेगी. अब अपराधी तत्व खुले आम हिंसक कार्यवाही करेंगे, लूट पाट, आगजनी करेंगे क्योंकि अब उनको किसी का कोई खौफ नहीं रहेगा.
अब ऐसे अपराधी प्रवृति के लोग निडर होने के साथ ही बेलगाम भी हो गए. यह लोग तो खुले आम लूट पाट, खून खराबा करेंगे, उनका तो कोई बाल बांका नहीं कर सकेगा. एक जिला के अफसर ने तो व्यक्तिगत चर्चा के दौरान मुझसे यहाँ तक कह दिया, कि मुख्यमंत्री की दूसरी सबसे बड़ी गल्ती यह है कि पुलिस गोलीबारी में मारे गए लोगों को एक एक करोड़ रूपयों का मुआवजा दिया जायेगा. हंसते हुए जिला अधिकारी ने मजाक में कहा कि अब तो ऐसा लगता है कि “मैं भी अपने गन मेन से कहूं कि भाई मुझे गोली मार दे , एक करोड़ का मुआवजा मिलेगा मेरी फेमिली को पर्याप्त होगा” !
जब मैंने फील्ड में काम कर रहे जिला के जिम्मेदार अफसरों से पूछा कि किसान आन्दोलन को समाप्त करने और शहरों में दूध सब्जी की आवक सुचारू बनाए रखने के लिए सरकार को क्या करना चाहिये? अधिकारी महोदय ने दो टूक जबाव दिया सबसे पहिले शासन को हिंसक कार्यवाही मे लीन लोगों को अपराधी की श्रेणी में रखकर मुलजिमों वाली भाषा में बात करना चाहिये. फिर किसानों में असली किसान और राजनीतिक रूतबे से बने इन्कम टेक्स चोर किसानों को असली किसानों के वर्ग से अलग करके देखना चाहिये.
मेरी इस किसान आन्दोलन के सन्दर्भ में फील्ड़ मे कार्यरत दर्जनों छोटे बड़े कर्मचारियों और तथा कथित किसान नेताओं और उनके चमचों से गहराई से चर्चा हुई. इस चर्चा के निष्कर्ष बहुत ही चौंकाने वाले सामने आए.
देश में आजादी के तुरन्त बाद जमींदारी प्रथा खत्म करके भूमि सीलिंग एक्ट लागू किया गया. कोई भी किसान अपने पास दस एकड़ से ज्यादा जमीन नहीं रख सकता था. इस कारण बड़े बड़े जमीदारों और किसानों ने ताबड़ तोड़ अपनी जमीनों का हस्तांतरण काल्पनिक नामों, रिश्तेदारों के नाम दर्ज करा कर चोर रास्ता ढूंढ लिया. धीमे धीमे इन बड़े किसानों की जमातों ने राजनीति में सत्तारूढ़ पार्टियों के साथ सांठ गाँठ जमा ली.
देखते ही देखते पुराने राजे रजबाड़ों के मसीहा सीधे चुनावी मैदान में कूद कर जमीन चोरों के महाचोर बनकर कुछ जगह प्रमुख राजनैतिक पदों पर आसीन हो गए. फिर एक रास्ता निकाला गया कृषि भूमि का उपयोग अगर फल सब्जी या अन्य कृषि उत्पादों में किया जाए तो उसे भूमि सीलिंग एक्ट से छूट मिल गई. फिर क्या था पुराने जमीदारों और राजे महाराजों के सेवादारों ने गरीब किसानों की जमीनों को देखते देखते हथिया लिया.
अब पुराने राजे महाराजे और जमीदारों ने अपना चोला बदल कर समृद्ध कृषकों के नाम का नकाब ओढ़ लिया है. यही मजबूत किसान, पंच, सरपंच बनकर गांवो के प्रमुख कर्ता धर्ता बन गए. इनके हाथ में अब वोटों की ताकत आ गई. कोई भी राजनैतिक दल इनसे पंगा लेने की हिम्मत नहीं कर सकता. जातिगत समीकरणों ने इन तथाकथित किसान नेताओं की ताकत में और अधिक इजाफा कर दिया.
वर्तमान में मन्दसौर और मालवा क्षेत्र में हो रहे हिंसक आन्दोलन की आड़ में फिर कौन है? क्या कांग्रेस या बीजेपी या और कोई. मन्दसौर में पुलिस गोलीबारी में मारे गए किसानों ने कभी स्वपन में भी नहीं सोचा होगा कि पुलिस उन पर गोली चला देगी? और वह मारे जावेंगे.
इन किसानों को भड़काने वाले, इकट्ठा करने वाले चक्का जाम कराने वाले नेताओं ने भी कभी नहीं सोचा होगा कि पुलिस फायरिंग होगी और किसान मारे जाएंगे. उन्हें तो मुख्य मंत्री की उज्जैन सरकिट हाऊस की उस घोषणा का पता था, जिसमें मुख्यमंत्री ने घोषणा कर दी थी कि किसान आन्दोलन में भाग ले रहे किसी भी व्यक्ति पर कोई मुकदमा दर्ज नहीं होगा.
फिर क्या था समाज में छुपे असामाजिक तत्वों को सुरक्षा कवच मिल गया. उन्होंने लूट पाट, आगजनी चक्का जाम खुले आम चालू कर दिया. इस लूट पाट और गैर कानूनी हरकतों के लिए अगर कोई जिम्मेदार है तो वह है “प्रशासकीय दुर्बलता “. फील्ड़ के अफसरों को, पुलिस बल को, राजनैतिक फिरका परस्ती ने इतना दुर्बल कर दिया है कि जिला प्रशासन चाहे भी तो स्वविवेक से अपना कोई निर्णय नहीं ले सकता.
इस दुर्बलता का ही नतीजा है कि सड़कों पर जगह जगह यात्री बसों को तोड़ा जा रहा है. ट्रक फूंके जा रहे है. औरते बच्चे बिलख बिलखकर चीख रहे हैं. शहरों में पांच दिनों से दूध सब्जी लापता है. उपद्रवियों की हिम्मत देखिये चलती रेल में घुसकर महिलाओं और यात्रियों से मारपीट करते हैं. इस सब पर गजब की बात यह है कि राहुल गाँधी गरीबों की जलती लाशों पर रोटियां सेकने घटना स्थल पर जाने की कोशिश करते हैं. इसका कूटनीतिक भाषा में यही अर्थ निकलता है कि उनकी पार्टी चाहती है आन्दोलन और भड़के और दस बीस पचास लोग और गोलियों से मारे जाएं.
उपद्रवियों की गोली पत्थर एक निम्न स्तर का सरकारी नौकर सहन कर लेता होगा , पर जिस समय हमने सी आर पी एफ या पुलिस जवान के हाथों मे जब रायफल सौंपी है तो क्या यह रायफल उसके हाथ मे हमने चूमने के लिए दी है. जब कानून यह कहता है कि अगर कोई किसी पर हमला करता है और उस नागरिक को यह अन्देशा है कि अगर उसने अपनी रक्षा स्वंय नहीं की तो वह मारा जाएगा. ऐसी हालात में पुलिस या अन्य फौजी ही नहीं, अगर एक आम नागरिक भी होगा तो उसे आत्म रक्षा में गोली चलाकर अपनी जान बचाने का पूरा कानूनी अधिकार है.
जहाँ तक मन्दसौर में गोली चली और किसान मारे गए इस प्रश्न का सवाल है, यह क्यों नहीं कहा जाता कि असामाजिक तत्व लूटपाट मारपीट करने पर आमादा थे, तो जिस तरह विदेशों में जहाँ हमसे बेहतर प्रजातन्त्र है, उन देशों में भी पुलिस कांस्टेबल या शेरीफ को पूरा अधिकार है कि वह उपद्रवी या लुटेरे को सीधे गोली मार दे. अमेरिका या यूरोप में खुले आम लूटपाट करने वालों को शूट करने के पहले किसी को डोनाल्ड़ ट्रम्प या इग्लैण्ड़ की प्रधान मंत्री से इजाजत नहीं लेना पड़ती कि ‘श्रीमान यह लुटेरा लूट रहा है मैं गोली मारूं या नहीं.’
जिला प्रशासन और भोपाल की सरकार को किसान आन्दोलन के हिंसक हो सकने की जानकारी हो या न हो. पर बीजेपी सरकार की रीढ़ की हड़्ड़ी कही जाने वाली ‘आर एस एस ‘ के स्वंय सेवक क्या सो रहे थे? मन्दसौर नीमच जिले के हर गाँव कस्बों में उनकी शाखाएं हैं. क्या हिंसक आन्दोलन होने के समाचार से वह अपने मुख्य मंत्री को सतर्क नहीं कर सकते थे.
असली में अपने को किसान डिक्लेयर करके बडे बडे किसान नेताओं ने सरकारी सुविधाओं और सबसीडियों की मलाई इतनी हजम कर रखी है कि उनके जहन में हराम की कमाई ठूंस ठूंस कर गले गले तक भर गई है. अब उनका “नरा” सच में “टड़” गया है. अब समय आ गया है कि जो लोग भोलेभाले किसानों को भड़काकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं. इनको लेटाकर इनके अपराधों के दिये को जलाकर कानून के लोटे से ढँक कर उनकी पूरी आक्सीजन जला देना चाहिये.
अगर इनको अभी नियंत्रित नहीं किया तो आज तो इनके प्रायोजित असामाजिक तत्वों ने जिला कलेक्टर के साथ मन्दसौर मे मारपीट की तथा कपड़े फाड़ दिये हैं. अब आगे चलकर यही जनता की अमन चैन के दुश्मन, असामाजिक तत्व मंत्रियों और विपक्ष के बड़े नेताओं के कपड़े फाड़कर नोंचेगे उनकी सुरक्षा में खड़ी पुलिस तमाशा देखेगी क्योंकि आपने उनके हाथों में बन्दूकें तो थमा दी है वह तो चूमने के लिये हैं. अपराधियों पर गोली चलाने के लिये नहीं हैं.
अब तो किसान आन्दोलन से उत्पन्न समस्याओं से जूझने का एक ही तरीका शेष बचा है. जिस तरह मोदी जी ने काश्मीर में फ़ौजी हुकमरानों को निर्णय लेने की खुली छूट दे दी है, उसी तरह फील्ड़ में मौजूद प्रशासकीय अफसरों को परिस्थितियों को देखकर स्वंय निर्णय लेने की आजादी देना चाहिये. अफसरों को भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं भागना चाहिये.
मन्दसौर के कलेक्टर की सबसे बड़ी गल्ती यह रही कि उन्होंने प्रेस को इंटरव्यू में बताया कि ” मैंने तो गोली चलाने का आदेश नहीं दिया था ” यह कह कर उन्होंने अपनी चमडी तो बचा ली, पर जिले की पुलिस का मनोबल तोड़ दिया. उसका नतीजा कलेक्टर को दूसरे दिन ही झेलना पड़ा.
असामाजिक तत्व कलेक्टर को कुत्ते की तरह दौडा दौडाकर मारते रहे, दूर खड़ी पुलिस उनके फटे कपड़े देखती रही. अगर श्रीमान कलेक्टर ने अपने बयान में यह कहा होता कि पुलिस ने आत्म रक्षा में गोलियां चलाई जिससे अनियन्त्रित जनसैलाब में घुसे अराजक तत्व अधिक हानि न कर सके. ऐसे मौके पर मौजूद पुलिस कभी अपने कलेक्टर को पिटने नहीं देती.
दूसरी बड़ी गल्ती कलेक्टर की यह रही कि उन्होंने गृह मंत्री या अपने उच्च अधिकारियों को फोन पर गलत जानकारी पहुंचाई कि पुलिस ने गोली नहीं चलाई. निश्चित ही घटना स्थल पर मौजूद पुलिस बल के अफसरों और कलेक्टरों के बीच कोई समन्वय नहीं रहा होगा. लगता है दोनों ही अनुभव हीन रहे होंगे. उन्हें मॉब मेन्टेलिटी को हेन्डिल करने का कोई अनुभव नहीं रहा होगा.
वरना कोई सेनापति अपनी सेना को गुंडों लुटेरों के हाथों पीटे जाने के लिए उग्र भीड़ के हाथों मे कैसे झौंक सकता है. एक बार जिला पुलिस के लोग अपना सिर फुड़वाकर भी गोली चलाने के लिए कलेक्टर के आदेश का इन्तजार कर सकते हैं. पर जब “सीआरपी एफ” का जवान ड्यूटी पर मौजूद है, तो उसे तो ट्रेनिंग ही इस बात की दी जाती है कि दुश्मन अगर उस पर हमला करे तो इसके कि पहले दुश्मन का हाथ जवान की ओर पहुंच सके उसके पहले ही सीआरपीएफ के जवान की बन्दूक से निकली गोली, शत्रु की खोपड़ी को चीर कर निकल जानी चाहिये.
अब सरकार को ढुलमुल लचीला आचरण करने के बजाय सख्त और कड़क रुख अपनाना चाहिये. खुले शब्दों में ऐलान कर देना चाहिये अब कोई “भाईयो बहिनों मामा भान्जियों की भाषा नहीं चलेगी”. जो भी किसान आन्दोलनकारी कानून तोड़ते पकड़ा जायेगा, उसे किसानों को दी जाने वाली सभी सरकारी सुविधाओं और सबसीडियों से वंचित कर दिया जाएगा. सरकार को ‘बीपीएल ‘ कार्ड़धारी कृषकों के बीपीएल कार्ड़ों की तत्काल जांच शुरू कर देना चाहिए. जांच शुरू होते ही आधे से ज्यादा फर्जी कार्ड़धारी आन्दोलनकारी किसान चूहों की तरह अपने बिलों में घुसकर छुप जाएंगे.