सोम तीन हैं.
सोम “चाय” है. (यह लेख का विषय नहीं है.)
सोम “चन्द्रमा” है.
सोम “वसन्त-संपात” है
जो क्रान्तिवृत्त और विषुवत् वृत्त के दो कटान-बिन्दुओं में से एक है.
“सोमवती अमावस्या” वह अमावस्या है
जो सोमवार को पड़े अथवा वसन्त विषुव के दिन पड़े.
गन्धर्व गायक है.( यह लेख का विषय नहीं है.)
गन्धर्व “सूर्य” है.
सूर्यो गन्धर्वस्तस्य मरीचयोप्सरस: .
अग्नि आग है. (यह लेख का विषय नहीं है.)
अग्नि (बीटा टॉरी) “वह तारा” है जिस पर सोम (वसन्त संपात) का रेखांश था.
सोमः प्रथमो विविदे गन्धर्वो विविद उत्तरः.
तृतीयोऽग्निष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजा:॥
सोमोऽददद् गन्धर्वाय गन्धर्वोऽददग्नये.
रयिं च पुत्राश्चादादग्निर्मह्यमथोऽइमाम्॥
पहले सोम (चन्द्रमा) भचक्र का स्वामी बना
क्योंकि चन्द्रमा की सहायता से ही भचक्र का ज्ञान हुआ
अर्थात् सर्वप्रथम चान्द्र वर्ष का व्यवहार हुआ.
इसके पश्चात् गन्धर्व (सूर्य) भचक्र का स्वामी बना.
अर्थात् चान्द्र वर्ष के पश्चात् सौर वर्ष (ऋतुवर्ष = विषुव से विषुव तक अथवा अयनारम्भ से अयनारम्भ तक) का व्यवहार आरम्भ हुआ.
और उसके पश्चात् अग्नि भचक्र का स्वामी बना.
अर्थात् जिस तारे के रेखांश पर वसन्त संपात हो उस रेखांश पर सूर्य के पहुँचने से वर्षारम्भ की परम्परा का जब आरम्भ हुआ तब अग्नि तारा ही उस स्थिति में था.
और सबसे अन्त में “मनुष्यज” वर्ष बने.
अर्थात् पूर्वोक्त वर्षों के समन्वय से जो वर्ष बने वे मनुष्यज हैं
क्योंकि पूर्वोक्त वर्षों के समन्वय से “मन्वन्तर” का ज्ञान होता है और .
ॐ अग्नीषोमाभ्यां नम: !
अर्थात् अग्नि तारे और सोम (वसन्त संपात) को नमन है.
अग्नि: वै देवानां मुखम् !!
अर्थात् अग्नि निश्चित् ही देवों का मुख है.
अर्थात् अग्नि तारे से देवयान का आरम्भ होता है.
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का प्रथम सूक्त अग्नि को समर्पित है. इस सूक्त के ऋषि मधुच्छन्दा हैं. यह ऋषि का नाम नहीं अपितु उपाधि प्रतीत होती है क्योंकि अग्नि तारे पर सूर्य के पहुँचते ही मधुमास समाप्त हो जाता है. बहुत से ऋषियों की उपाधि ही प्रसिद्ध हुई.
अग्निम् ईळे पुरोहितं यज्ञस्य देवम् ऋत्विजम् .
होतारं रत्नधातमम् ॥ (ऋग्वेद १-१-१)
अग्नि (तारे) की स्तुति करता हूँ
जो यज्ञ (ऋतुवर्ष) का पुरोहित (नियन्ता) है
देव है (देवयान का तारा है)
ऋत्विक् है
होता है
रत्नधाता है.
अग्नि: पूर्वेभि: ऋषिभि: ईड्यो नूतनै: उत .
स देवान् एह वक्षति ॥ (ऋग्वेद १-१-२)
अग्नि पुराने ऋषियों द्वारा भी स्तुत्य था और नूतन ऋषियो द्वारा भी स्तुत्य है.
अर्थात् वसन्त संपात के रेखांश की स्थिति पुन: पुन: अग्नि पर हो जाती है.
वह देवों को लाता है.
अर्थात् अग्नि से देवयान का आरम्भ होता है.
स न: पिता इव सूनवे अग्ने सूपायनो भव .
सचस्वा न: स्वस्तये ॥ (ऋग्वेद १-१-९)
वह हमारे लिए वैसा ही है जैसा पुत्र के लिए पिता होता है.
हे अग्नि! हमें उपलब्ध होइए.
अर्थात् वसन्त संपात के रेखांश पर कोई तारा न होने पर व्यवहार में कठिनता होती है.
हमारे कल्याण के लिए हमारे साथ रहिए.
अर्थात् वसन्त संपात पर कोई तारा होने से सुगमता होती है.
– प्रचंड प्रद्योत
Note : कोई दावा नहीं !