आज बचपन में पढ़ी एक कहानी याद आ गयी. कहानी बहुत पुरानी है. एक गांव से दस जने कमाने को परदेस निकले. कमाने को निकले तो जिसको जितना बन पड़ा सबने रुपया कमाया. तीन साल बाद वे घर वापसी की सोचे. एकमत होकर घर की ओर निकल पड़े.
जब निज गांव से दस कोस की दूरी पर होंगे तब समूह के सरदार ने खाना खाने की इच्छा जाहिर की. खाना बना और सबने छ्क कर खाया , आखिर घर लौटने की खुशी थी.
अब सरदार सबकी गिनती करने लगा. वह बार-बार गिनता किंतु नौ आदमी छोड़कर दसवां नदारद था. समूह के सभी आदमी ने बारी-बारी से गिनती किया. सब फेल- दसवां नदारद! सवाल जस के तस कि दसवां आदमी कहाँ छूट गया. वे लोग अपने दसवें साथी की याद में रोने लगे.
तभी कुछ देर बाद एक साधु उस रास्ते से गुजरे. सभी को रोते देखकर वह ठिठक गए. मामले को समझने के बाद सबको एक कतार में खड़ा होकर एक, दो, तीन करके गिनने लगे.. जब दस आदमी पूरे हुए तो सभी झूम उठे कि भई अब तो दसवां आदमी भेंट गया.
साधु हंसते हुए सबसे कहा – यह ठीक है कि तुम्हारा दसवां साथी जो खो गया था वह मिल गया. कैसे मिला यह नहीं पूछोगे ?
सरदार ने कहा – जी कहिये महाराज.
साधु ने कहा – तुम नौ आदमियों को तो गिन लेते थे, परन्तु स्वंय को गिनना ही भूल जाते थे. यह “भूल” कितनी घातक होती है, अब तुम्हें समझ में आ गया होगा.
5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है. हम क्या “भूल” रहे? हम यह “भूल” गए हैं कि पर्यावरण की सत्ता में केवल सभी जीव-जंतु ही नहीं आते अपितु मानव नामक “जीव” भी इसी प्रकृति का हिस्सा भर है.
जबकि मानव पर्यावरण को राज्य समझता है और खुद को शासक. आज मानव स्वंय को प्रकृति की संतान नहीं मानता, अपितु अपनी दासी मान बैठा है. यह “भूल” बड़ी भारी पड़ेगी. यह पर्यावरण तब बचेगा जब मानव को सहअस्तित्व का बोध हो.. अन्यथा चांद, मङ्गल, बृहस्पति पर मानव बस्तियां बसाने की तैयारियों में कमी नहीं है.
सरदार खुद को “भूल” गया है!