बात राष्ट्रीय स्वाभिमान और सम्मान की हो तो मायने नहीं रखते धातु से बने ये तमगे

सोवियत संघ ने 1979 में सेना भेजकर अफगानिस्तान में सोवियत समर्थक सरकार की सैन्य मदद की थी. सोवियत संघ के इस सैनिक हस्तक्षेप के विरोध में 1980 के मास्को ओलम्पिक का अमेरिका और उसके सहयोगी 65 देशों ने बहिष्कार किया था. अमेरिका की इस हरकत का हिसाब बराबर करने के लिये सोवियत संघ ने 1984 के लॉस एजंलिस ओलम्पिक का बहिष्कार कर दिया.

1936 के बर्लिन ओलम्पिक का आयरलेंड ने इसलिये बहिष्कार कर दिया था क्योंकि अतंर्राष्ट्रीय ओलम्पिक समिति ने आयरलेंड को एक स्वतंत्र देश के रूप में ओलम्पिक में भाग लेने से मना कर दिया था.

1956 के मेलबर्न ओलम्पिक खेल में नीदरलेंड, स्पेन ओर स्विट्जरलेंड ने हंगरी में हुए विद्रोह में सोवियत संघ के अनुचित हस्तक्षेप के विरोध में भाग नहीं लिया.

केवल यूरोप और अमेरिका ही नहीं अनेक एशियाई राष्ट्रों ने भी अपने स्वाभिमान और राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिये ओलम्पिक खेलों का बहिष्कार किया.

स्वेज नहर विवाद में ब्रिटेन के तानाशाहीपूर्ण रवैये का विरोध करने के लिये मिस्र, कंबोडिया, इराक और लेबनान ने भी अपनी टीमों को मेलबर्न ओलम्पिक में खेलने नहीं भेजा.

1976 के मॉन्ट्रीयल ओलम्पिक का कुल 28 देशो ने बहिष्कार किया था. अफ्रीकी देश तंजानिया के नेतृत्व में 22 अफ्रीकी देशों ने भी ओलम्पिक का बहिष्कार किया, क्योंकि न्यूजीलेंड की रग्बी टीम ने अतंर्राष्ट्रीय ओलम्पिक समिति द्वारा प्रतिबंधित दक्षिण अफ्रीका का दौरा किया था.

अतंर्राष्ट्रीय ओलम्पिक समिति ने 1964 मे रंगभेद की नीति के कारण दक्षिण अफ्रीका पर ओलम्पिक खेलों में भाग लेने पर रोक लगा दी थी.

ओलम्पिक खेल में पूरी दुनिया के देश भाग लेते हैं. एक एक पदक के लिये खिलाड़ी और स्वाभिमानी देश अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं. बावजूद इसके अनेक देशों ने समय समय पर ओलम्पिक जैसे बड़े टूर्नामेंट का बहिष्कार किया.

केवल अपने राष्ट्रीय हितों और विचारधारा की रक्षा के लिए, जबकि ओल्म्पिक खेलो का हर देश बेसब्री से 4 साल तक इंतजार करता है. खिलाड़ी एक पदक के लिये रात दिन पसीना बहाते हैं. पर जब बात राष्ट्रीय स्वाभिमान और सम्मान की आती है तो ये धातु से बने तमगे कोई मायने नहीं रखते.

क्रिकेट को ओलम्पिक में नहीं खेला जाता. कई देशों में तो इसे खेल भी नहीं माना जाता. केवल इंग्लैंड और उसके कुछ रीढ़विहिन गुलाम देशों में ही क्रिकेट खेला जाता है.

मारिया शारापोवा ने एक बार कहा था कि वो सचिन तेंदुलकर को नहीं जानती. तब हम भारतीयों को बहुत बुरा लगा था. जबकि ये सच है कि 190 देशों में सचिन, लारा और क्रिस गेल को कोई नहीं जानता और न इन देशों में क्रिकेट खेला जाता है.

बावजूद इसके हम क्रिकेट के लिये दीवाने हैं, उधर सैनिक मर रहे हैं और इधर हम पाकिस्तान से क्रिकेट खेल रहे हैं. जब सीमाओं पर खून बह रहा हो तब क्रिकेट के इस बेशर्म खेल का प्रदर्शन शर्मनाक है.

पाकिस्तान के साथ यह मैच न खेलते तो कौन सा आसमान टूट जाता या देश की अर्थव्यवस्था ढह जाती. माना BCCI एक स्वायत्तशासी निकाय है, सरकार का उसमें सीधा हस्तक्षेप नहीं, उनकी टीम भी भारत की नहीं बल्कि BCCI की टीम है. पर क्या वो सरकार से ऊपर है?

और खेल मंत्रालय किसलिये है, BCCI की स्वायत्ता के नाम पर भारत सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती. ध्यान रहे सीमा पर सैनिक खड़े हैं. इसीलिये भारत के खिलाड़ी क्रिकेट खेल रहे हैं और हम घर में बैठकर आराम से मैच के नाम पर बेशर्मी का नंगा नाच टीवी पर देख पा रहे है.

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