मेरा मानना है कि भारत में हो रही हर वो छोटी-बड़ी घटना जो हमारी हिन्दू संवेदनाओं और आस्थाओं को झंझोड़ दे रही है, वह अपवाद नहीं बल्कि नियतानुसार ही हो रही है.
उनका गाय को काटना और फिर उसका आईएसआईएस के तर्ज पर वीभत्स प्रसारण करना, प्रारब्धानुसार ही है. यह होना ही था और हमें तो अभी और हृदयविदारक घटनाओं को देखना है.
इसको इस तरह समझिए कि आज भारत और उसका हिन्दू संक्रमण काल से गुजर रहा है. यह काल, वह काल है जिसमें वह प्राचीन काल से स्वीकारी गयी गुलामी से उपजी नपुंसकता और विदेशी आक्रांताओं द्वारा, हिंदुत्व एक जीवनधारा को हीन बताए जाने से उत्पन्न दिग्भ्रमिता को छोड़ कर, वह अपने आत्मविश्वास और स्वाभिमान को वर्तमान से अंगीकार करना चाहता है.
ऐसी स्थिति एक जनसंघर्ष को जन्म देती है क्योंकि जब भी कोई नस्ल या उसकी संस्कृति अपने खोये हुये प्रताप को, भूतकाल से वर्तमानकाल में लाने का प्रयास करती है, तो उसको भूतकाल के शयनकक्षों से संतुष्ट हुये वर्तमान से संघर्ष करना पड़ता है.
शुरू में यह संघर्ष बौद्धिक होता है क्योंकि भूतकाल की नपुंसकता और हिंदुत्व के प्रति वितृष्णा से बने कृपाधारियों को सिर्फ खुद के बुद्धिजीवी होने का अहंकार होता है.
जब नस्लों में खुद की खोज की कसमसाहट होती है और वह इतिहास से ‘मैं’ निकाल कर उनके सामने रखती है, तब इन कृपाधारियों को, इतिहास और गाथाओं से गायब किये गये सामर्थ्य को, वर्तमान की रोशनी में रखना या देखना स्वीकार्य ही नही होता है.
दरअसल यह खोजा गया सामर्थ्य उनकी खुद की उत्पत्ति की अवैधता और खोखलेपन को उजागर कर देता है.
यह कृपाधारी वर्ग जहां किसी भी वैकल्पिक सुश्रुषा के होने को ही अस्वीकार करता है, वही तर्क का रास्ता छोड़ कर कुतर्क को ही तर्क के रूप में स्थापित करने की चेष्टा करता है.
इसका परिणाम यह होता है कि यह कृपाधारी और उसके अनुयायी, विक्षिप्तता के मार्ग पर चल पड़ते है. जहां अब संघर्ष बौद्धिक न रह कर, विवेक की केंचुल उतार कर हिंसक हो जाता है.
इस हिंसक संघर्ष की प्रस्तावना में, यह तर्कहीन और विक्षिप्त वर्ग, मनोवैज्ञानिक रूप से अपराजित होने के एहसास को बनाए रखने के लिये, अपने को ही खोज कर रही नस्ल और उसकी संस्कृति की संवेदनाओं, आस्थाओं और प्रतीकों पर क्रूरतापूर्ण आघात करता है.
आज हम भारत को उसी चरण में देख रहे है, जहां उसकी नस्ल और संस्कृति पर निर्दयतापूर्ण आघात, प्रसारित करने के लिये किये जा रहे है. लोगो को यह समझना होगा कि यह लगातार होते रहेंगे.
यह बात कश्मीरी देशद्रोहियों के साथ इन लोगों द्वारा किए जाने वाले सहवास, केरल-बंगाल में हिन्दू के काटे जाने पर मौन, हिन्दू धर्म का उपहास, सार्वजनिक रूप से गाय को काट कर किये गये अट्टाहास से समझ लेना चाहिये.
आज भारत मे न कोई हिन्दू है, न मुस्लिम है, न ईसाई या सिख है. आज यहां सिर्फ अपनी धरोहर का पुनरुद्धार करने वाला हिंदुत्व है या फिर इस धरोहर से अपने अस्तित्व के अप्रासंगिक हो जाने से भयाक्रान्त भीड़ है.
आप अपनी धरोहर को संजोने वाले है तो आज इस भयाक्रान्त भीड़ से आप पर आघात ही होगा, जिसका सामना आप को ही करना है.
इतिहास यही बताता है कि ज़िंदा नस्लें इन आघातों का प्रतिघात करती है क्योंकि इस प्रतिघात का उत्तरदायित्व उठाना ही नस्ल के जिंदा बने रहने की शर्त होती है.
मैं जानता हूँ कि ज्यादातर लोग शुरू की दो लाइन पढेंगे उसके बाद उबासी लेने लगेंगे, लेकिन यदि आखिरी लाइन पढेंगे तो सिर्फ एक ही सन्देश मिलेगा कि ज़िंदा रहना है तो ज्यादा बर्बर और क्रूर होना होगा.
अपनी विरासत खोजती नस्ल को शुचिता और आदर्श की गठरी को फेंक कर सिर्फ अपनी खोई हुयी गरिमा को सर पर उठाना होगा.
उसे ज़िंदा रहने के लिए मरना और मारना होगा क्योंकि वह नही मारेगी तब भी लोग अपने को ज़िंदा रखने के लिये उसको मारेंगे ही.
उनको कश्मीर, बंगाल केरल में इसका अभ्यास हो चुका है लेकिन उनको नस्लों द्वारा मारे जाने का अभ्यास नहीं है और यही जीत है.
यहां एक बात को अच्छी तरह समझ लीजिये कि यदि कोई नस्ल, शासन के प्रश्रय में प्रतिघात कर के जिंदा रहने की सोच रही है तो वह नस्ल चिरकाल तक ज़िंदा नहीं रह सकती है.
शासन सिर्फ उसके विरोधियों को कन्दराओं से निकाल कर उसके सामने कर सकता है लेकिन लड़ना, मरना और मारना, अपनी पीढ़ी और संस्कृति की संरक्षा के लिये नस्ल को ही करना पड़ेगा.