127 Hours… एक अंग्रेज़ी फिल्म है कुछ तीन चार साल पहले देखी थी. यूं तो अंग्रेज़ी फ़िल्में मैंने बहुत कम देखी हैं, लेकिन जितनी भी देखी हैं वो या तो जीवन और मृत्यु के बीच जीवन को बचा लाने की जिजीविषा पर आधारित रही या फिर मुझे वो इसलिए पसंद आई क्योंकि अंग्रेज़ी फ़िल्में अधिकतर ऐसी कहानियों पर बनी होती हैं जो हमारे बरसों से बने बनाए सामाजिक ढाँचे को तोड़ती है.
यहाँ पर बना बनाया सामाजिक ढांचा कहा है, भारतीय सामाजिक ढांचा नहीं. इसलिए आप तुरंत प्रतिक्रिया दें इसके पहले एक बात स्पष्ट कर दूं. पृथ्वी पर जीवन के पल्लवित होने के साथ जब भी अनुशासन और नियम नियंत्रण के आधार पर सामाजिक ढांचा तैयार हुआ है वो उस काल और पारिस्थिति के अनुसार तैयार हुआ है.
इसीलिये एक कालखण्ड से दूसरे कालखण्ड में प्रवेश के लिए बने बनाए ढाँचे को तोड़ने का जो दुस्साहस करता है, वो उस विशेष काल में अपयश को तो प्राप्त होता है लेकिन आने वाले काल के लिए संभावनाओं के नए द्वार खोल जाता है. इसलिए जब भी किसी ने समाज के बने बनाए ढाँचे को तोड़ा है, उसे सम्मान के साथ अपयश और अपमान भी मिला है.
खैर हम बात कर रहे थे फिल्म 127 Hours की, जो एक ऐसे पर्वतारोही की कहानी है जो पर्वतारोहण के दौरान पैर फिसलने से ऊंचाई से गिरता है और दो विशाल चट्टानों के बीच जाकर फंस जाता है.
यहाँ तक तो ठीक है, वो चाहता तो अपने पास मौजूद सामग्री की मदद से ऊपर आ सकता था, लेकिन जिस तरह से वो गिरता है उसका एक हाथ एक भारी सी चट्टान में फंस जाता है. अब यहाँ से शुरू होता है मृत्यु के द्वार से जीवन को बचा लाने की ज़िद.
उसकी पीठ पर लदे बैग में उसको खाने पीने की सामग्री मिलती रहती है, फिर एक समय ऐसा भी आता है जब पानी ख़त्म हो जाता है जो उसे अपने ही मूत्र को पीने को बाध्य करता है.
इस बीच वो चट्टान में फंसे अपने हाथ को निकालने की भरपूर कोशिश करता है. खाने पीने की सामग्री ख़त्म होने के साथ और बढ़ते दर्द के बीच नींद सी बेहोशी के बीच वो एक ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है जिसे विज्ञान की भाषा में हम Hellucination कहते हैं. उसको अपने अतीत की वो सारी बातें याद आने लगती है जहां प्रेम, ईर्ष्या, नफरत, दोस्ती, दुश्मनी जैसी परिस्थतियों में उसने अपनी भूमिका किस तरह निभाई.
मैं ऐसी स्थिति को आत्मचिंतन कहती हूँ, ये नींद या बेहोशी में दिखने वाली मात्र अतीत की घटनाएं नहीं होती, ये मृत्यु के द्वार पर खड़े होकर गुज़रे जीवन में हमारी भूमिका पर एक मंथन होता है… और हर मंथन उस समुद्र-मंथन के समान है जहां से अमृत सबसे अंत में ही निकलता है.
हम मंथन से निकलने वाली विभिन्न वस्तुओं को अपनी बुद्धि अनुसार सबको बाँट देते हैं, जैसे विष शिव के कंठ में, कामधेनु ऋषियों को, उच्चैःश्रवा घोड़ा दैत्यराज बलि को, ऐरावत हाथी इन्द्र को मिला, कौस्तुभमणि विष्णु भगवान ने रखी, कल्पवृक्ष और रम्भा नामक अप्सरा देवलोक को मिली, लक्ष्मी जी निकलीं, तो लक्ष्मी जी ने स्वयं ही भगवान विष्णु को वर लिया. उसके बाद कन्या के रूप में वारुणी प्रकट हई जिसे दैत्यों ने ग्रहण किया और भी बहुत कुछ निकला जिसमें चन्द्रमा, पारिजात वृक्ष और शंख थे…
और फिर अंत में निकलता है अमृत….
तो आत्मचिंतन की प्रक्रिया में वो पर्वतारोही अपनी स्थिति, जीवन और मृत्यु के बीच झूलते उत्पन्न विचारों और अनुभवों को साझा करने के लिए खुद का ही वीडियो बनाता है. विचारों के मंथन के दौरान अमृत निकलने से पहले बहुत सारी बातों के रूप में जो वस्तुएं निकलती हैं वो अलग अलग उद्देश्य और कारक के अनुसार बंट जाती है…
फिर सबसे अंत में निकलता है अमृत.. जानते हैं ना अमृत का अर्थ अ+मृत … यूं तो इसे अमर करने वाली वस्तु के रूप में देखा जाता है लेकिन अमृत वास्तव में कोई वस्तु नहीं, यह एक भाव है. एक ऐसा भाव जो आपको उस अवस्था में पहुंचा दें जहां आप अ+मृत हो जाते हैं.
जिसे कृष्ण ने गीता में कहा है –
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि
नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो
न शोषयति मारुतः॥
इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता..
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयम-
अक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः
स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥
क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है…
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयम-
अविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं
नानुशोचितुमर्हसि॥॥
यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और इस आत्मा को विकाररहित कहा जाता है…
देही नित्यमवध्योऽयं
देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि
न त्वं शोचितुमर्हसि॥
हे अर्जुन! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य (जिसका वध नहीं किया जा सके) है…
तो जब उस पर्वतारोही को यह अमृत रूपी ज्ञान प्राप्त होता है, तो वो उसके लिए चट्टान में फंसे अपने हाथ की कुर्बानी देने को भी तैयार हो जाता है… कैसे भी इस जीवन को बचाना है, उसके लिए देह के किसी अंग को देह से अलग करना पड़े तो भी उसे मंज़ूर है.
तो वो अपने पास रखे बिना धार के एक चाकू से अपने ही हाथ को काटने की प्रक्रिया शुरू करता है… और अंत में मृत्यु के सामने घुटने टेक देने के बजाय, 127 घंटे की जद्दोजहद के बाद वो अपना एक हाथ वहीं छोड़ जीवन को जीत लाता है, उस भाव को जी लेता है जिसे हम अ + मृत कहते हैं…
आपको क्या लगता है मैंने इस अंग्रेज़ी फिल्म की कहानी में गीता के श्लोक को घुसाकर और बेसिर पैर के सिद्धांतों को भानुमती के कुनबे से जोड़कर आपके सामने प्रस्तुत कर आपको अपना मखौल उड़ाने का मौका दिया है?
नहीं जी अब आप तो जीवन की सारी जद्दोजहद, सारी आध्यात्मिक दार्शनिक बातें भुलाकर शुद्ध भौतिक स्तर का सन्देश ग्रहण कीजिये कि हम अपना एक हाथ एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की चट्टान में फंसा चुके हैं, जहां से ज़िंदा बच निकलने के लिए उसको काटने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा है…
अब तो दो ही उपाय है, या तो हम गाय कटने जैसी घृणित घटनाओं को समुद्र मंथन में निकलने वाले विष की भांति गले में धारण कर नीलकंठ कहलाने के गौरव को गले लगाए घुमते रहें या फिर उस घृणित सामाजिक व्यवस्था में फंसे अपने हाथ को धड़ से अलग कर जीवन को जीत लाएं.
समाज का वो हिस्सा जो राजनीतिक स्वार्थ के वशीभूत किसी पशु का जीवन लील लें, समाज का वो हिस्सा खुद को ‘बेचारा दलित’ साबित करने के लिए धार्मिक भावनाओं पर आक्रमण करें, समाज का वो हिस्सा जो जो हिन्दू देवी देवताओं का अपमान कर नैतिक मूल्यों का चीरहरण करें,(सन्दर्भ- हाल ही में हुए हनुमान के चित्र को जूता मारना, उस पर थूकने जैसा घृणित कृत्य), ऐसे हिस्से का धड़ से अलग हो जाना ही सबके लिए हितकारी है.
इस कार्य में असहनीय दर्द होगा, लेकिन एक कालखण्ड से दूसरे कालखण्ड में प्रवेश के लिए बने बनाए ढाँचे को तोड़ने का दुस्साहस हमें करना ही होगा, हो सकता है हम इस काल विशेष में अपयश को प्राप्त हों, लेकिन आने वाले काल के लिए संभावनाओं के नए द्वार खुल जाएंगे.