जानेमन इधर : किन्नरों की दुनिया का अधूरा सच

रंगमंच की प्रस्तुति लेखक के लिखे गए नाटक का ही प्रतिरूप हुआ करती है. जिसमें प्रकाश व्यवस्था और नेपथ्य का संगीत नाटक के लेखन के अनुसार निर्देशक की परिकल्पना हुआ करता है. वह स्वतंत्र नहीं होकर एक कॉमन फैक्टर होता है.

इसलिये वे विषय में हुए अज्ञान में दोषी नहीं होते.  प्रमुख आधार है वह नाटक होता है. अतः तुलनात्मक अध्ययन लेखक से प्राप्त लिखित रचनाओं पर ही श्रेष्ठ होता है. ये तुलनात्मक्तायें बिंदुवार जिन नाटकों की करना चाहती हूँ वे हैं मछेन्द्र मोरे कृत ‘जानेमन… इधर’ और महेंद्र भीष्म कृत ‘किन्नर कथा’.

‘जानेमन… इधर’ में थर्ड जेंडर अर्थात ‘किन्नर समुदाय’ की पीड़ा दर्शाने के बहाने से वास्तविक किन्नर नहीं बल्कि ‘छद्म-किन्नर’ की व्यवस्था को प्रकाशित किया गया. नाटक के अनुसार किन्नर प्राकृतिक रचना नहीं हैं. इन्हें किन्नर गुरु की वंशबेल के रूप में मर्द से किन्नर बनाया जाता है. जिससे किन्नर गुरु अपनी एक चेलन के रूप में अपनी संतान/ निशानी/ चिन्हस्वरूप छोड़ कर इस नर्क से मुक्ति पा लेता है.

किन्नर बनने को आतुर वे मर्द हुआ करते हैं जिनमें बचपन में हुए शोषण के  कारण उनमें पुरुष के संसर्ग की चाहना जाग उठती है और वे सांकेतिक “साड़ी चाहिए” रूप में स्त्री बनने की इच्छा ज़ाहिर करते हुए पुरुष अंग को ‘कोदई’ नामक हथियार से विक्षत करा के बहुचर माता का वरदान मानते हुए स्वीकार करते हैं और किन्नर जीवन की शुरुआत करते हैं.

नाटक के एक दृश्य में घोषणा है कि ” हर किन्नर, किन्नर बनने के पहले एक मर्द ही होता है.” और एक दृश्य में किन्नर अपने समुदाय की देवी ‘बहुचर माता’ के समक्ष कहता है कि “किन्नर ईश्वर के घर से पैदा नहीं होते, उन्हें तू बनाती है किन्नर, ताकि तेरी पूजा होती रहे.”

इन सन्दर्भों में जब हम किन्नर-पृष्ठभूमि पर लिखा साहित्य उठा कर देखते हैं तो उनमें दो महत्वपूर्ण कृतियाँ नाम दर्ज कराती हैं. एक ‘किन्नर कथा’ और दूसरी ‘मैं पायल’; ये दोनों उपन्यास के रचनाकार महेंद्र भीष्म हैं. जब महेंद्र भीष्म ने ‘किन्नर कथा’ लिखा था तब चुनाव आयोग द्वारा मतदाता-सूचि में किन्नरों के लिए स्त्री/ पुरुष कॉलम के अलावा अन्य कॉलम प्रस्तावित था.

उनके  प्रयासों से यह कॉलम सूची में आ चुका है. साथ ही किन्नरों के हित में कई आयाम स्थापित होने लगे हैं. बहरहाल; ‘किन्नर कथा’ महेंद्र भीष्म की बेहद गम्भीरता से  किन्नरों की दुनिया में गहरे उतरकर मोती खोज लाने वाली पाँच वर्षों की अथक परिश्रम का परिणाम है.

इस कृति को समाज में लाने के लिये महेंद्र भीष्म ने समाज के सैकड़ों उपालम्भ सहे किन्तु अविचलित हो कर स्थितप्रज्ञ अवस्था में नेक कार्य के प्रति अपनी संलग्नता ‘किन्नर कथा’ के रूप में प्रस्तुत कर समाज को दुके-छुपे अद्भुत सत्यों का उद्घाटन करके एक ओर चौंका दिया तो दूसरी ओर संवेदना से ओतप्रोत भी किया.

महेंद्र भीष्म की ‘किन्नर कथा’ कहती है कि स्त्री और पुरुष के अलावा एक और सशक्त समुदाय है जो अपनी उपस्थिति देश के विकास में योगदान करने हेतु सुनिश्चित करता है, वह है ‘किन्नर समुदाय’.

जब किन्नरों के प्रकार पर बात उठती है तो सत्य इस तरह दृष्टिगोचर होता है- लिंगोच्छेदन कर बनाये गए हिंजड़ों को ‘छिबरा’ और मर्दों को साड़ी-मेकअप कर बने नकली मर्दों को ‘अबुआ’ कहते हैं. अब जबकि ‘अबुआ’ किन्नर प्रजाति में हैं ही नहीं तो कैसे उनको किन्नर समझ कर उनकी मनोदशा को पीड़ा कहा जा सकता है? वे तो मात्र धनोपार्जन हेतु ही इस क्षेत्र में आकर इस ‘धंधे’ को अपनाते हैं.

यही बात बहुत हद तक ‘छिबरा किन्नर’ पर भी लागू होती है. क्योंकि उनका वास्तविक स्वरूप तो मर्द का होता है. ‘जानेमन… इधर’ में इसी बिंदु को केंद्र मानकर रचना की गयी है और प्राकृतिक किन्नर को सिरे से खारिज़ कर दिया गया है. ऐसे में किन्नरों के अस्तित्व को वापस हाशिये पर धकेलने का दुरूह कृत्य इस नाटक के माध्यम से हुआ है; इस संभावना से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता.

यद्यपि चौंकाने वाला यह तथ्य अभी शेष है कि हिजड़ों की चार शाखाएँ होती हैं- बुचरा, नीलिमा, मनसा और हंसा. इनमें बुचरा किन्नर जो जन्मजात होते हैं. महेंद्र भीष्म के आत्मकथ्यात्मक उपन्यास ‘मैं पायल’ की नायक ‘किन्नर गुरु पायल सिंह’ बुचरा किन्नर ही है. जिसे बालपन से दृश्यमान होने वाले स्त्रैण गुणों के कारण परिवार की उपेक्षा और विस्थापन के विष को आत्मसात करना पड़ा.

ज्ञातव्य हो कि ‘पायल सिंह’ के साथ किसी औजार के साथ छेड़खानी कतई नहीं की गयी है. वह आज भी उसी रूप में है जिस तरह से माँ के उदर से जन्म लिया था. फिर इस तरह की घोषणा जैसे कि ‘जानेमन… इधर’ में करवाई गई कि “किन्नर ईश्वर के घर से नहीं पैदा होते” न केवल असत्य है बल्कि उन समस्त ‘बुचरा किन्नर’ के अस्तित्व पर भी लाल रंग फेर देने की योजना है जो अपने अस्तित्व के लिये भीष्म संघर्ष कर रहे हैं.

शेष प्रकार में- ‘नीलिमा’ स्वयं बनते हैं, ‘मनसा’ स्वेच्छा से किन्नरों में शामिल होते हैं, ‘हंसा’ शारीरिक कमी के कारण बनते हैं. ऐसे में नाटक के किरदार किन्नर नीलिमा, मनसा और हंसा भी हैं, किन्तु ‘बुचरा’ कतई नहीं. इसी संदर्भ में अवध की एक किन्नर अपना नाम शामिल कराने का माद्दा रखती हैं वे हैं रिया जैन.

रिया जैन ताली पीट के पैसा कमाने में विश्वास नहीं रखतीं. वे उच्चशिक्षित हैं और समाज में आम बच्चों को ट्यूशन करके स्वाभिमान से धन अर्जन करती हैं. साथ ही अपने माता-पिता के साथ परिवार में रहती हैं. वे अन्य किन्नरों के लिए भी प्रेरणास्रोत हैं.

उपसंहार के तौर पर यह कहने में कोई संकोच नहीं किया जाना चाहिए कि ‘बुचरा प्रजाति’ के सिवा अन्य प्रकार अबुआ, नीलिमा, हंसा व मनसा किन्नर के पर्याय हैं ही नहीं तो कैसे यह नाटक किन्नर की पीड़ा और मनोदशा को व्यक्त करता है?

यह मात्र समाज के उन अवांछित तथ्यों पर प्रकाश डालता नज़र आता है जिनमें ‘बच्चों को शोषण किये जाने वाले स्वयंभू हैं, या किसी किन्नर को नर्क से मुक्ति के समाधान में एक मर्द को जबरन अथवा स्वयं उसी की इच्छा से लिंगोच्छेदन करके किन्नर बना देना है.’

अस्तु यह उचित नहीं है कि सम्पूर्ण जानकारी इकट्ठा किये बग़ैर लोगों की जिज्ञासा को ग़लत बिंदुओं से तृप्त करना. ‘जानेमन… इधर’ अपने उद्देश्य में अवश्य सफल माना जा सकता था यदि इसका प्रचार-प्रसार   ‘किन्नर की पीड़ा’ पर केंद्रित न कहकर उक्त उल्लेखित किये गए सन्दर्भों से सम्बंधित कर दिया जाता तो…

समाज को आवश्यकता है किन्नरों की पीड़ा से रूबरू होने की तो उन्हें या तो किन्नरों को मुख्यधारा में लाने के प्रयास करने होंगे अथवा स्वयं हाशिये पर उतर के उस अदेखी, अजानी पीड़ा को आत्मसात करना होगा. इसके लिए सर्वाधिक उचित है कि प्रत्येक जिज्ञासु पाठक को अपने जीवन में एक बार महेंद्र भीष्म की कालजयी कृति ‘किन्नर कथा’ के साथ ‘मैं पायल’ भी पढ़ना निःशेष शंकाओं के समाधान प्रस्तुत करेगी.

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