दिल्ली के एक ख्यातिप्राप्त विश्वविद्यालय में एक टटपूंजिया लफंगा, महिला छात्रावास के आगे मूत्रविसर्जन करने पर तुला था. छात्राओं में से एक ने मना किया तो लफंगा और ज्यादा अभद्रता पर उतर आया.
छात्रा की शिकायत पर विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने जांच की और जब पाया कि आरोपी सचमुच अश्लील हरकतें कर रहा था तो उचित दंड देकर, उस पर जुर्माना भी लगाया.
यही लफंगा कालांतर में जब देशविरोधी कार्यक्रमों के आयोजन का आरोपी हुआ तो पेड मीडिया से आगे बढ़कर सोशल फ्री मीडिया का दौर आ गया था. इस घटना से देश भर में हंगामा मचा.
तब तक ये लफ़ंगा छात्र नेता बन चुका था और जांच शुरू हुई तो किसी कोने से उस छात्रा की आवाज आई. पूर्व के अपराधों का भंडाफोड़ हो गया.
आल इंडिया सेक्सुअल एसॉल्टर्स नाम से जाना जाने वाला छात्र राजनैतिक संगठन AISA, हमेशा की तरह पीड़िता के चरित्रहनन के लिए टूट पड़ा. पहले तो लड़की के चरित्र पर सवाल उठे. फिर कहा गया कि ऐसी घटना ही नहीं हुई.
जिसे वामपंथियों ने चुनावों में खुला समर्थन दिया था, उसी दिल्ली के एक राजनैतिक पार्टी के मुखिया की तरह कहा जाने लगा, सबूत लाओ जी, वीडियो दिखाओ जी!
जब इस घटना के लिए जारी पत्र भी सामने आ गए तो कहा गया फर्जी कागज़ हैं. लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन ने घटना और जुर्माने की पुष्टि कर दी तो वामपंथी धर्मावलम्बियों ने हमेशा की तरह बेशर्म चुप्पी ओढ़ ली. मामले को दबाने का हर संभव प्रयास हुआ.
दिल्ली में स्वच्छ भारत अभियान की अलख जगाता रविन्द्र कोई छात्र नेता या मीडिया मुगलों तक पहुँच वाला बुद्धिजीवी नहीं था.
मामूली सी आय पर ई-रिक्शा चलाने वाले रविन्द्र का कसूर बस इतना था कि उसने खुले में पेशाब करते लोगों को शौचालय इस्तेमाल करने कह दिया था.
उसकी पीट-पीट कर हत्या कर दी गई. अख़लाक़ के परिवार को फ्लैट और करोड़ों नकद देने वाली सरकारों ने उसका मुआवज़ा चंद सिक्कों का तय किया है. मगर अगर आप सोच रहे हैं कि मुद्दा सिर्फ मुआवजा है तो आप गलत सोच रहे हैं.
असली मुद्दा है मीडिया मुगलों का हत्यारों का नाम छुपाना. आखिर चीख-चीख कर ‘दबंग जातियों ने की दलित की हत्या‘ कहने वाले इस मामले में हत्यारों का नाम लेने का साहस क्यों नहीं जुटा पा रहे?
जनसरोकारों की पैरवी के नाम पर अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने वालों को ये फासीवाद और आने वाले कत्लोगारत की आहट उस दिन क्यों नहीं सुनाई दी जिस दिन मीडिया मुगल अपने बगलबच्चा कन्हैया कुमार की पैरवी कर रहे थे?
जिस दिन जे.एन.यू. हॉस्टल में नामी-गिरामी पत्तरकारों को कॉन्डोम नहीं मिल रहे थे, इस क़त्ल की पटकथा तो उसी दिन लिख दी गई थी ना!