ओ प्रिय
ये तो अवगत है तुम्हें
जिसका जो पावना है
वो मिलना ही है, जैसे
तुम्हारा हृदय, मुझे…
यहाँ मैं तुम्हारी
दासी भी
रानी भी
पटरानी भी…
मैं तुम्हारे हृदय की गति पर नृत्य करती हूँ
कभी मद्धिम, कभी त्वरित
तुम देखते हो मंत्रमुग्ध,
आत्मसात करते हो मुझे
और में आकंठ तृप्त होती हूँ…
ये गोपन तुम जान गए हो, कि
स्त्री को पाना या स्वीकारना नहीं होता
उसे तो ग्रहण किया जाता है…
एक और बात से तुम अनजान नहीं, कि
प्रेम की प्रगाढ़ता का सम्बन्ध, धर्मपत्नी से ही नहीं
धर्मपति से भी होता…
ऐसे ही तो नहीं मैंने
अपने अपने भद्रजनों के
चरण स्पर्श की बेला में
एक ही आशीष माँगा था
जो फलीभूत हुआ
..कि
सौभाग्यवती भव!!
– सुधा सिंह