1917 से पूर्व रूस में जार का निरंकुश शासन था. जनता के सारे अधिकार राजा की कृपा पर निर्भर थे. जनता हैरान परेशान थी. बेरोजगारी, गरीबी चरम पर थी. जार को जनता की खस्ता हालत के बारे में पता था. पर वो इस सारे मामले से ऐसे बना रहा जैसे उसे कोई खबर ही न हो.
जार का वैभव विलास और जनविरोधी नीतियाँ बढ़ती ही चली गयी. इस स्थिति में रूसी क्रांतिकारी ब्लादिमीर इलिच लेनिन ने 1903 में ‘वोल्शेविज्म दल’ की स्थापना की. उसने किसानों मजदूरों को जार, उद्योगपतियों, जमींदारों और उच्च वर्ग के विरूद्ध भड़काया. कहा कि इनके शोषण के कारण ही रूस की यह दुर्दशा हुई है. इसी दल के नेतृत्व में उन्होने रूस में क्रांति का बिगूल फूंका.
क्रांति के दौरान पेट्रोगाड में एक रोचक घटना घटी. आंदोलित जनता जब सड़को पर प्रदर्शन कर रही थी तब एक दुकान पर ब्रेड और डबलरोटी बन रही थी. भूखे आंदोलनकारी उस दुकान पर टूट पड़े. उस दौरान वहां बड़ी संख्या में पुलिसकर्मी भी मौजूद थे.
वरिष्ठ अधिकारियों ने उन पर गोली चलाने का आदेश दिया पर किसी पुलिसवाले ने गोली नहीं चलाई. पूरी दुकान आंदोलनकारियों ने लूट ली. इस घटना का पूरे रूस पर गहरा प्रभाव पड़ा जनता समझ गयी कि पुलिस और प्रशासन की सहानुभूति उनके साथ है, इस घटना के बाद लेनिन के नेतृत्व में रूस में साम्यवादियो के सर्वहारा वर्ग की सत्ता स्थापित हो गयी.
जार के शासन का अंत हो गया. लेनिन ने जमींदारो से सारी जमीने छीनकर किसानों में बांट दी. उद्योगों, कारखानों को मजदूरों के हवाले कर दिया और सारे बैंको का राष्ट्रीयकरण कर दिया. इसी व्यवस्था के चलते सोवियत रूस 1991तक विश्व की एक महाशक्ति रहा.
अंतरिक्ष में ‘स्पूतनिक’ के प्रक्षेपण से लेकर ओलम्पिक में पदक हासिल करने तक रूस; अमेरिका और पूंजीवादी देशों को हर मामले में पछाड़ता रहा किंतु बाद में स्टालिन और दूसरे अयोग्य उत्ताराधिकारियों, वोल्शेविको के भ्रष्टाचार और विलासिता के कारण साम्यवादी दल की जड़ें हिल गयीं.
जार और जमींदारों के जिन विलासितापूर्ण जीवन का विरोध करके साम्यवादी सत्ता में आये थे वही विलासितापूर्ण जीवन शैली लेनिन के उत्ताराधिकारियों ने अपना ली. साम्यवादी नेता, कलाकार, बुद्धिजीवी, खिलाड़ी विद्रोह कर एक एक कर सोवियत संघ छोड़कर अमेरिका और पूंजीवादी देशो में बसने लगे.
1991 में मिखाइल गोर्बाच्योफ के समय जब सोवियत संघ का विघटन हुआ तब भी हालात ठीक वैसे ही बन गये थे जैसे 1917 में थे. रूबल का भारी अवमूल्यन हो गया खाद्यान्न के दाम आसमान छूने लगे. रूसी जनता खाने पीने की दुकानो पर लूटपाट कर रही थी. पुलिस मूकदर्शक होकर देख रही थी.
उस स्थिति में गोर्बाच्योफ ने सभी 15 राज्यों को आजाद करने की घोषणा कर दी और सोवियत संघ बिखर गया. अर्थात जिस स्थिति में साम्यवाद शुरू हुआ था उसी स्थिति में पहुंचकर खत्म हो गया. 100 साल बाद आज 2017 में वेनेजुऐला में भी साम्यवाद उसी दौर से गुजर रहा है जिस दौर से 1991 में रूस गुजरा था.
1970 के पूर्व उत्तरप्रदेश में भी ऐसी ही कहानी दोहराई गयी. दलित वर्ग के करिश्माई नेता कांशीराम ने 1973 में ‘बामसेफ’ की स्थापना की. कांशीराम ने भारत में ‘बहुजन समाज’ की सत्ता को स्थापित करने का नारा दिया. ठीक वैसे ही जैसे लेनिन ने रूस में सर्वहारा वर्ग की सत्ता स्थापित करने का दिया गया था. 14 अप्रेल 1984 को उन्होंने इस लक्ष्य को पाने के लिये ‘बहुजन समाज पार्टी’ की स्थापना की. वोल्शेविको की तरह बसपा ने भी उच्च वर्ग के लोगों के प्रति कमजोर और दलित नागरिकों को संगठित कर आंदोलित किया.
“तिलक, तराजू और तलवार, इनको जूते मारो चार” के नारे पूरे उत्तरप्रदेश में गुंजा दिये. तत्कालिन सरकार ने जातिगत वैमनस्य फैलाने वाले नारों को लेकर कोई कार्यवाई नहीं की. इससे प्रोत्साहित होकर जातिगत वैमनस्य और अलगाववादी भावनाओं को और अधिक भड़काया गया.
रूस के ‘सर्वहारा वर्ग’ की तरह भारत की जनता भी ‘बहुजन समाज की सत्ता’ के नारे से प्रभावित हो गयी. मायावती चार बार यूपी की मुख्यमंत्री बनी. पूरे देश में मतप्रतिशत और जनाधार बढ़ता गया. बसपा राष्ट्रीय दल बन गया. बहुजन समाज के साथ देश का अन्य वर्ग भी उससे जुड़ता चला गया. अन्य दलों की जड़ें हिलने लगी. पर जैसे लेनिन के 1924 में निधन के बाद साम्यवादी अपने सिद्धांतों से भटक गये वैसा ही हाल 2006 में कांशीराम के निधन के बाद बसपा का हो गया.
परम्परागत राजनीतिक दलों और राजनेताओं के सारे अवगुण बसपाई नेतृत्व ने ग्रहण कर लिये. भ्रष्टाचार, वंशवाद से लेकर आम जनता से दूरी, केन्द्रीकृत निर्णय जिसमें बिना कार्यकर्ताओं की सुने एक तरफा निर्णय, सबकुछ वैसा ही होने लगा जैसा दूसरे दलो में होता है.
परिणाम वही हुआ जो होना था, जैसे सोवियत संघ बिखरा था, वैसे ही बसपा भी बिखर गई. लोकसभा में अंडा देने के बाद विधानसभा में भी बत्ती गुल हो गयी. सारे जनाधार वाले नेता पार्टी छोड़कर चले गये तो अब जिस जातिगत प्रतिस्पर्धा और वैमनस्य की भावना के चलते बसपा की स्थापना 1984 में की गयी थी आज उसे फिर दोहराने की कोशिश की जा रही है.
पर इतिहास का यह कठोर सच है जिन परिस्थितियों में कोई विचारधारा शुरू होती है और राजनीतिक ढलान पर यदि वो दोबारा उन्हीं परिस्थितियो को खड़ा करके राजनीतिक पुनर्जीवन पाना चाहे तो समझ लो कि उस राजनीतिक विचारधारा के अंत का समय आ गया है. क्योंकि 1917 में जिन परिस्थितियों में रूस में साम्यवादी क्रांति हुई थी वैसी ही परिस्थितियों में रूस से 1991 में साम्यवाद का अंत हो गया था.
बसपा ने भी अपना कालचक्र पूरा कर लिया है. उत्तरप्रदेश में जारी जातिगत हिंसा में किसका हाथ है ये तो अभी तक रहस्य ही बना हुआ है पर परिस्थितियों को देखकर लग रहा है कि जिस जातिगत वैमनस्य ने पहली बार बसपा को सत्ता के शिखर पर पहुंचाया था, आज उत्तरप्रदेश में वही जातिगत वैमनस्य उसके अंत की कहानी लिख रहा है.