सहारनपुर दंगा कई हिन्दुओं की बलि ले कर, सामाजिक वैमनस्य फैला कर शांत हो रहा है. शांत होना विवशता है कि समाज के विभिन्न वर्गों को जीवित रहना है. अपना, परिवार का पालन-पोषण करना है. बशीर बद्र साहब का एक शे’र है –
नफ़रतों का सफ़र इक क़दम दो क़दम
तुम भी थक जाओगे हम भी थक जायेंगे
अतः दंगे को शांत होना ही है. सोशल मीडिया पर चर्चा में यह भी है कि सहारनपुर दंगे का मुख्य षडयंत्रकर्ता व रणनीतिकार हाजी इक़बाल है जो बसपा का नेता है. दंगे के लिए मोटी फ़ंडिंग करने वालों में भी हाजी इक़बाल का नाम आ रहा है.
समाचार यह भी है कि राजपूतों के घर जलाते हुए उनकी गोली से घायल का नाम अकबर है. दंगे में राजपूतों की तलवार से ज़ख़्मी हुए लोगों के नाम सलाउद्दीन व नसीर अहमद हैं.
ये तो 4-5 नामों की एक छोटी सी झलक है मित्रों, जो मुस्लिमों व मीडिया के दुर्भाग्य से सामने आ गए, पर्दे के पीछे हज़ारों मुस्लिम हैं. दंगा दलित भाइयों और राजपूत भाइयों में हो रहा है तो इसमें मुस्लिम कहाँ से आ गये?
इसी दंगे से संबंधित समाचार आज के दैनिक जागरण में भी है. उसके अनुसार दंगे के लिये ज़िम्मेदार भीम आर्मी का संस्थापक चंद्रशेखर 2008-09 में दलितों के बीच चर्चा में आया. उस वक़्त वह सहारनपुर के एएचपी कॉलेज में पढ़ रहा था.
वहां उसने दलितों के लिये अलग पानी का नल होने पर आपत्ति जताई और ठाकुरों का विरोध किया था. इस कॉलेज में दो अलग नल थे, एक से दलित पानी पीते थे तो दूसरे से उच्च वर्ग के छात्र (ज़्यादातर ठाकुर).
चंद्रशेखर ने इस भेदभाव के ख़िलाफ़ आंदोलन किया. 17 अप्रैल 2016 को सहारनपुर के दरियापुर गांव से दलितों की बरात गुज़रने का उच्च वर्ग ने विरोध किया. भीम सेना ने इसका भी विरोध किया… अब भीम सेना में 7000 से अधिक सक्रिय सदस्य हैं.
बंधुओ! यहाँ बहुत गंभीर एक बात हमारे सोचने की है. क्या “दलित भाइयों और राजपूत भाइयों” लिखने भर से समाज में साम्य स्थापित हो जायेगा? स्कूल में आज 2008-2009 में दलितों के पीने के पानी के अलग नल? 17 अप्रैल 2016 को सहारनपुर के दरियापुर गाँव से दलित लड़के की घोड़े पर बरात निकलने पर विरोध?
यह तो पश्चिम उत्तर प्रदेश जो अपेक्षाकृत शिक्षित और अग्रणी है, का हाल है. सोचिये कि पूर्वी उत्तर प्रदेश बिहार, बंगाल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र के गांवों में दलित समाज का क्या हाल होगा?
बंधुओ! यदि हम राष्ट्रपुरुष के शरीर के इन ज़ख़्मों पर मरहम नहीं लगा सके, इन ज़ख़्मों को तुरंत नहीं भर सके तो राष्ट्र आपकी-मेरी आँखों के सामने नष्ट हो जायेगा.
नाथद्वारा के मंदिर में आज भी दलितों के जाने पर झगड़ा खड़ा होता है. आज जो समाज मंदिर में सम्मानपूर्वक जाने का अधिकार मांग रहा है वो इनको त्याग देने का भी मन बना सकता है. वह ईसाई, मुसलमान बनने की दिशा में अग्रसर हो सकता है.
अभी तो उसे सरकारी क्षेत्र में आरक्षण का खोखला आश्वासन रोके हुए है. इस पर बहुत से तथाकथित विद्वान् नाक-भौं सिकोड़ते हैं.
अब अति हो चुकी है. दलित समाज के अलग हो जाने का संकट सिर पर है. भीम सेना में 7000 सदस्य हमीं ने तो नहीं बनाये? इक़बाल, अकबर, सलाउद्दीन, नासिर अहमद को समाज में ज़हर फ़ैलाने के लिये क्या हम ही रास्ता नहीं दे रहे हैं?