एक दौर था जब हम खूब चिट्ठियाँ लिखा करते थे, और ये शौक़ सा बन गया था. ख़ाली समय में किया जाने वाला सबसे प्रिय कार्य बन गया था, चिट्ठियाँ लिखना और चिट्ठियाँ पढ़ना. एक ही चिट्ठी को कई बार पढ़ना और हर बार उतना ही आनंद लेना.
जितनी चिट्ठियाँ हम लिखते, जवाब में भी उतनी ही चिट्ठियाँ आती थीं या उससे कुछ ही कम.
हफ़्ते में चार – पाँच बार तो डाकिया आता ही था. कभी-कभी तो लगातार ही आना हो जाता था. “पंडित जी” कहते थे हम सब उन्हें. उनके लगभग हर दिन के आने से एक – दूसरे के प्रति व्यवहार बहुत अनौपचारिक सा हो गया था उनका और हमारा.
वो जब भी आते, अगर वो गर्मियों के दिन होते तो इत्मीनान से बैठकर कुछ मीठा और ठंडा पानी और अगर सर्दियाँ हों तो चाय बिना संकोच माँग लेते थे. और हम भी उनके साथ बैठकर उनकी बातों के साथ चाय का मज़ा लेते.
जब कभी वो घर के सामने से गुज़रते हुए पड़ोस के घर में चिट्ठी देने जाते तो और अगर हम दिख जाते तो बहुत अपनेपन से ये कहते हुए जाते : बिटिया आज आपकी चिट्ठी नहीं है. किसी सैंटा क्लाज़ जैसे लगते थे वो, जो अपने झोले में ढेर सारी ख़ुशियाँ लिए फिरते थे जो.
कितना ख़ूबसूरत था वो दौर जब काग़ज़ की ख़ुशबू में हम अपनों को खोज लेते थे. चिट्ठी भेजने वाले की अपनी ख़ास लिखावट के साथ उसकी मौजूदगी का एहसास होता था. जो एक ही चिट्ठी को कई बार पढ़ने पर भी कभी बोर नहीं होने देता था. हम दूर होकर भी बहुत नज़दीक से लगते थे.
डाकिया अब नहीं आता और उसके साथ ही आनेवाली, नहीं आतीं अब वो छोटी-छोटी लेकिन अनमोल सी ख़ुशियाँ और वो मीठी सी मुस्कान भी!
– सौम्या श्रीवास्तव