वट वृक्ष के नीचे पंखा हिलाने से ज्यादा ज़रूरी है बेटियों की जकड़न से मुक्ति

आज वटसावित्री है. व्रत रखने वाली माँओं में से काफ़ी ऐसी होंगी जिन्होंने कोख में ही ‘सावित्री’ को मार दिया होगा. फिर भी जो बेटियां बची होगी उनमें से किसे वे सावित्री होने देना पसंद करेंगी, ज़रा कलेजे पर हाथ रख कर ख़ुद सोच लें.

वट वृक्ष को बेनी डुला कर, वहीं सत्यवान की कहानी हर साल सुनते रहने के बावजूद भी स्वीकार करना चाहेंगी वे आज की सावित्रियों का अस्तित्व? पता भी है उन्हें कि सावित्री का अर्थ क्या है?

जी…! सावित्री का अर्थ सभ्यता से है, समानता और आधुनिकता से, विद्वता से है. अपनी पुत्री को योग्यतम बना कर उसे दुनिया के जंगल में उतार देने का है कि वह अपना अभीष्ट तलाश सके. चुन सके वो जो उसके हिसाब से सही हो. अगर पहली नज़र में फ़ैसला ग़लत भी लगे तब भी पुत्री के निर्णय के पीछे चट्टान की तरह खड़े रहने का अर्थ है सावित्री, ताकि फिर प्रेरित हो पुत्री अपने निर्णय को सही साबित करने के लिए.

किसी को महिमामंडित कर उसका पूजा कर लेना काफ़ी आसान है. दो शाम व्रत रख लेना भी उतना मुश्किल नहीं, कैलोरी ही बर्न होगा उससे. कठिन तो है जिनकी पूजा करते हों आप उनके आदर्शों को जीवन में उतारने की कोशिश करना.

बेनी डुलाते हुए महिलाओं से जा कर ज़रा पूछिए न आप कि बेटियों को वे आत्मनिर्णय का अधिकार देना चाहेंगी सावित्री की तरह? हो सकता है उसी बेनी से चार डंडा लगा दें वो आपको. वाणी, विचार और आचरण के इसी फ़र्क़ ने, ऐसे ही दोगलेपन ने बीमार बनाया हुआ है समाज को.

बेटियों को समाज के और आपकी नाहक लिप्सा के जकड़न से मुक्ति दीजिए, सावित्री कथा का यही सार है. वट वृक्ष के नीचे पंखा हिलाने से कहीं ज्यादा ज़रूरत इसकी है.

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