क्या हम कायरों का समाज बन रहे हैं?

Pat Condell नाम से एक इंग्लैंड के ब्लॉगर हैं. Youtube पर काफी वीडियो भी हैं उनके. साफ अंग्रेज़ी बोलते हैं, उच्चारण समझने में दिक्कत नहीं आती. उनका एक वीडियो देखा, ‘A SOCIETY OF COWARDS’… क्या बेहतरीन भाषण दिया है.

इस SOCIETY OF COWARDS का भावानुवाद यहाँ आप के लिए प्रस्तुत हैं. बात इंग्लैंड की हो रही है, लेकिन आप को यहाँ की स्थिति प्रतिबिम्बित दिखें तो आश्चर्य न करिएगा. दोनों को डराने वाला चेहरा एक ही है. शांतिपूर्ण! लीजिये, अनुवाद प्रस्तुत है.

मुझे लगता है कि हम एक डरपोक समाज बन गए हैं. आप को अगर मेरी बात का बुरा लगा तो माफ कीजिएगा, लेकिन मेरा यही इरादा था कि आप को बहुत बुरा लगे. क्यूंकी मुझे रश्दी वाला मामला अभी तक याद है और उस मामले ने मुझे जो झटका दिया था वो भी अब तक याद है.

महज़ एक किताब लिखने से किसी की जान को खतरा हो सकता है यह भयकारी कल्पना ही पल्ले पड़ नहीं रही थी. लेकिन आज तो हम पहले से मान के चलते हैं कि अगर आप ने शांतिधर्म के बारे में कुछ कडवे सत्यों के विषय में लिखा तो आप को धमकियाँ मिलनी ही है और आप मारे भी जा सकते हैं. इसलिए आप मुंह बंद रखने में ही भलाई समझते हैं. अर्थात, यह सब सहिष्णुता और विविधता के नाम पर.

आज टीवी और अखबार खुद ही अपने को इतने सेंसर (censor) करते हैं जिसकी कल्पना भी करना कुछ दशकों पहले असंभव था. लेकिन आज ये खुद को सेंसर करते हैं इसलिए नहीं कि वे संवेदनशील हैं जैसा कि वे कहते हैं, लेकिन इसलिए करते हैं क्योंकि वे शांतिदूतों के हिंसा से डरते हैं.

और ये अपना डर बताने से भी डरते हैं, ताकि शांतिदूत इसका बुरा न मान जाएँ. कुछ ही हफ्तों पहले यहीं, ब्रिटेन में ऐसा ही एक वाकया हुआ जब दो कुख्यात नफरत फैलाने वालों ने एक बहुत ही मामूली बात पर बवाल खड़ा कर दिया.

वे पार्लियामेंट के प्रत्याशी माजिद नवाज़ को चुनाव से हटाना चाहते थे क्योंकि उन्होंने मुहम्मद का एक कार्टून ट्वीट किया कि एक मुस्लिम होने के तौर पर उन्हे उस से कोई आपत्ति नहीं थी.

इन दो नफरत के सौदागरों का दिल माजिद नवाज़ के लिए यहीं पर बात बिगाड़ने से नहीं भरा बल्कि उन्होने पाकिस्तान तक यह खबर पहुँचने का इंतज़ाम किया जहां माज़िद नवाज़ का कारोबार है और रिश्तेदार भी. बस, हो गया. जान की धमकियाँ आनी ही थी, आ गयी!

BBC और Channel 4 दोनों ने इस स्टोरी को कवर किया और दोनों ने आतंकियों की वकालत की लेकिन खुद को ऐसे पेश किया कि जैसे निष्पक्ष हों. इसीलिए उन्होने उस कार्टून को दिखाने से मना कर दिया.

यह तो ब्रिटेन के हर सेक्युलर मुस्लिम का, और माजिद नवाज़ इसकी एक सही मिसाल हैं, विश्वासघात किया. इन्होने तो यह कर दिया कि नवाज़ को जिन छोटे सोच के लोगों ने धमकाया था, उनको अपने समाज में भी कोई सवाल न कर पाये.

और इन्होने ऐसा क्यूँ किया? डर से! डरते थे कि कहीं वे खुद या उनके घर के लोग न मारे जाएँ. क्या खूब अनुभव है, नहीं? बहुसंस्कृतिपूर्ण ब्रिटेन में आप का स्वागत है!

लेकिन अगर मीडिया ही मुक्त अभिव्यक्ति का बचाव नहीं करेगी तो फिर मीडिया का काम ही क्या? और बचाव करेगा कौन? और कौन है जो कर सके?

वैसे तो, ऐसे उलझन में फंसे वृत्त संपादक को मेरी सहानुभूति है, लेकिन अगर आप एक नेशनल टीवी न्यूज़ प्रोग्राम चलते हैं तो यह एक साधारण नौकरी नहीं है – आप की भी कुछ जिम्मेदारी होती है.

हमारे मुक्त अभिव्यक्ति और निष्पक्ष समाचार पाने के स्रोत के आप रखवाले हैं. आप का काम है कि सत्य और उसके संबन्धित सभी बातों को आप सही ढंग से और निर्भयता से रिपोर्ट करें.

आप अगर यह नहीं कर सकते या डरते हैं तो भाई आप दूर हो जाएँ और किसी और को यह काम सौंपिए, जो इस ज़िम्मेदारी को न्याय दे सकें. ईमानदारी इसी में है.

लेकिन अगर मुझे कोई बात ज़बरदस्त खटक रही है तो यह कि इस पर जनता में कोई बवाल न हुआ. अब जैसे हमें आदत सी हो गयी है कि यह एक हिंसक मजहब है हालांकि हमें यह कहने कि इजाजत नहीं है और हमें यह भी पता है कि अगर वे उस कार्टून को दिखाते तो शायद दंगे हो जाते.

और यही आज ब्रिटेन और बाकी मुक्त कहलाते दुनिया की वास्तविकता है. यह मजहब मुश्किल से दो दशक से हमारे बीच रहने आया है, और हमारी हालत यह हो गयी है कि जो भी हम कहते या करते हैं, हमें मजबूरन ये सोचना होता है कि क्या इस से ये लोग दंगों पर उतारू तो नहीं हो जाएँगे?

एक सादा चित्र बनाने के पहले भी यह सोचना ज़रूरी हो जाता है. आतंक की व्याख्या और क्या होती है? यह सांस्कृतिक आतंक है और हम बेशर्मी से उसकी आरती उतार रहे हैं, यह शर्म की बात है.

हम दंभपूर्वक कहते हैं कि उनका बर्ताव सभ्यतापूर्ण नहीं है. लेकिन कोई अगर इस बात पर हमारा ध्यान खींचे तो हम उस पर ही टूट पड़ते है, उसे वंशवादी कहके गाली देते हैं.

हम यह मान कर चलते हैं कि समाज को कोई उकसाये तो यह लोग आपा खो कर हिंसक हो जाएँगे. और अगर ये हिंसक हो गए तो गुनाह हमारा ही है कि हमारी ही करनी पर इन्हे गुस्सा आया होगा.

हम यही मान कर चलते हैं कि हिंसा होगी, और हिंसा न हो इसीलिए हम पहले से ही घुटने मोड़ लेते हैं. इसलिए नहीं कि हम प्रगत या उदारमतवादी हैं – यह बस हम ही अपने आप को बहला रहे हैं – लेकिन इसीलिए क्यूंकि हम झूठे, ढ़ोंगी और डरपोक हैं.

हम अपनी कायरता को सुंदर शब्दों में सजाते हैं, जैसे कि सहिष्णुता, सम्मान और खुद ही के लिए तालियाँ बजाते हैं कि हम कितने उच्च विचारों वाले लोग हैं. लेकिन हम सब जानते हैं कि हमारी वीरता मर चुकी है, और अब उसके लाश की दुर्गंध इतनी है कि कुछ भी करो, दबती नहीं.

हमारी यह पहली पीढ़ी है जिसे अपने स्वातंत्र्य के बचाव लिए लड़ना नहीं पड़ा है – और यह हमारे व्यवहार में दिख भी रहा है. हम स्वातंत्र्य की न कदर करते हैं, न कीमत जानते हैं, क्यों कि हमें यह विरासत में मिला है – इसे हमने मेहनत से कमाया तो है नहीं.

हमें साफ दिख रहा है कि स्वस्थ समाज के लिए अत्यावश्यक ऐसे एक तत्व का हमारे आँखों के सामने विनाश हुए जा रहा है और हम इतने डरपोक हैं कि इस जघन्य अपराध में हमारी अपनी भागीदारी से भी आँख चुराते हैं.

हम वो डाकुओं की फिल्मों के गाँव वाले हैं जो एक बुरे आदमी से हमेशा डरे-डरे रहते हैं. (‘शोले’ याद है? ठाकुर ने हिजड़ों की फौज पाल रखी है?) लेकिन आप जब ऐसी फिल्म देखते हैं तो आप को उन पर दया नहीं आती है क्योंकि वे उस लायक नहीं होते. डरपोक है, डरने के सिवा और कर भी क्या सकते है?

अब जरा उनके चेहरे देखें – अरे, हम ही तो हैं वे! हम ही ने अपने आप को इनकी आतंक-धमकियों से डर कर self censor कर लिया है कि हम ही मुक्त विचार को हलाल किए जा रहे हैं – और मुक्त विचार ही हमारे प्रगति की, हमारे समाज की चेतना रही है.

और इसी विचारधारा के चलते बस यही होगा कि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ जब पैदा होंगी, हम से कम स्वातंत्र्य अनुभव करेंगी. क्या आप को अभिमान हो रहा है खुद पर इस बात के लिए?

हमारी दांभिकता, बुज़दिली और कायरता की कीमत हमारी आनेवाली पीढ़ियाँ चुकाएंगी. ‘खोने की बाद ही इंसान समझता है कि उसके पास क्या था’, इन शब्दों का सही अर्थ उन्हें बहुत कष्टप्रद तरीके से समझ में आएगा – आपकी कायरता के कारण!

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