रुदन का क्रैश कोर्स

आपको अखबार का शीर्षक पढ़कर भले हँसी आयी हो, लेकिन भोपाल में विदाई के समय जो रोने का सात दिवसीय प्रशिक्षण दिया जा रहा है वह नितांत आवश्यक है. वैसे भी आजकल स्किल डवलपमेंट की खूब चर्चा हो रही है तो ऐसे में भावनाओं के प्रकाशन, नियंत्रण और प्रक्षेपण की कला को निखारना भी एक स्किल के अन्तर्गत ही रखना चाहिये और इसका इसका स्वागत भी अपेक्षित है.

आप जरा मनन करें, कोई माँ-बाप अपनी बिटिया को पच्चीस-तीस साल पालपोस कर बड़ा करता है. पढ़ाता-लिखाता है, दस-बीस लाख खर्च करके ब्याह करता है और लड़की विदाई के समय बिना आँसू बहाये या रोए… विदा हो के चली जाए तो सोचिए! माँ-बाप को कितनी तकलीफ़ होती होगी! या कुछ ऐसा हो कि लड़की की आँखों में आंसू न हो और वह अभिनय द्वारा अपनी भावनाओं को प्रदर्शित कर रही हो, कि माँ- बाप को यह न आभास हो कि उनकी बिटिया कठकरेजी है.

देखिए! अभिनय एक कठिन कला है इसमें निरन्तर अभ्यास, आत्मविश्वास और गुरु की महती आवश्यकता होती है. आप खुद सोचिए कि आप अचानक दो सौ लोगों के बीच कैसे रो पायेंगी. किसी के कन्धे पर सर पटक के रोना है, तो किसी के चरणों में, किसी के खटिया का गोड़ा धर के रोना है तो किसी के गोदी में.

अपने कक्ष से निकलते वक्त पहली तेज आवाज़ निकालनी है (कुछ “चिघ्घाड़” जैसी) फिर घर के मुख्य द्वार का चौखट पकड़ के रोना है. मुख्य द्वार से कार तक की पच्चीस कदम की दूरी को तीस मिनट में पार करना है. नाउन- कहाइन सबके कंधे पर सिर सखकर यह बता देना है कि ‘तोहरा के बहुत याद करब हम.’

जब कार में बैठना है तो अन्तिम तेज आवाज़ लगानी है और पांच मिनट तक फाटक नहीं बंद होने देना है ..और फिर कार का शीशा गिराकर, फाटक पर मुंह गिराकर रोना है… और इतने सब के बावजूद सबसे महत्वपूर्ण यह है कि भावनाओं के इतने उफान में अपने मेकअप को सुरक्षित बचाकर ससुराल तक ले जाना है.

अब आप ईमानदारी से बताइयेगा कि भावनाओं के इतने उतार-चढ़ाव को, कोई बिना प्रशिक्षण एक दिन में संपादित कर पायेगा? समझिए! आपके अभिनय में जरा सी चूक आपको समाज में शर्मिंदा कर देगी और आपकी अभिनय की कृत्रिमता आपके माँ-बाप को भी अपने परवरिश पर चितंन का मौका मुहैया करायेगी.

इसलिए ऐसी दुर्घटनाओं से बचना है और प्रशिक्षित अभिनय और आचरण प्रस्तुत करना है. और हाँ जिसके नयनों से स्वाभाविक आँसू और भावनाएं बह रहीं हैं उन्हें कोई सावधानी नहीं बरतनी, क्योंकि वो तो मौलिकता के मंच पर हैं.

सच तो यह है कि जमाना बहुत बदल गया है. अब संचार क्रान्ति का युग है. इंगेजमेंट के दिन से ही एक जोड़ा मोबाइल सस्ती काल दर पर पूरे चार- छह महीने बतिया के गर्दा मचा देते हैं.

प्रेम, संवेग, विरह, वियोग के इतनी लहरें उठती हैं कि आप कहने के लिये यहाँ होते हैं लेकिन होते कहीँ और हैं. यदि आपकी आँखों पर पट्टी बांधकर ससुराल में घुसाया जाए तो आप बिना किसी से टकराये किचेन में से जीरा का डिब्बा ढूंढॅ कर निकाल देंगी. आपको यहाँ तक जानकारी है कि मोटर कितने देर में टंकी भरता है क्योंकि फोन के दौरान बहुत बार आपके भावी पति ने बीच फोन में मोटर बंद करने जाते थे. दरअसल आपका मस्तिष्क जब पूरी तरह दूसरी व्यवस्था में लीन हो चुका है, तो आँसू कहां से आयेंगे?

आपको तो यह चिंता है कि हमने कमरे का रंग गुलाबी कहा था लेकिन बुढ़ऊ भाजपा के दबाव में भगवा पुतवा दिए. आपको यह चिंता है कि फेसबुक पर अपनी कौन सी पिक डालनी है. वो वाली लगायें, जिसमें हमारे हब्बी मुझे हाथ पकड़ के ऊपर स्टेज पर चढ़ा रहे हैं? या वो, जो ब्यूटी पार्लर में जो मेकअप के बाद की टटकी पिच्चर थी! दरअसल आप पूरी तरह आश्वस्त हैं कि भावी जीवन बहुत मित्रवत होने वाला है. आपके मन में वह भय नहीं कि ‘पता नहीं कवने दुआर पर जिनगी लिखी है?’ क्योंकि यह भय भी भोकार छोड़कर रुलाने के लिये पर्याप्त था.

इसलिए यदि ऐसी कोई संस्था जो भावनाओं के प्रकाशन सम्बन्धी दक्षता को विकसित कर रही है , तो निश्चय ही साधुवाद की पात्र है. क्योंकि न रोना कबूल लेकिन अभिनय में कृत्रिमता बेहद घातक है.

मैं इस संस्था के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ.

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