सारे प्रेमी असफल होते हैं, केवल प्रेम कभी असफल नहीं होता

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तुम्हारे सारे प्रयत्नों का अंत सदा दुख पर होता है. केवल प्रेम की ओर किये गये प्रयत्नों का ही नहीं, बल्कि तुम्हारे सारे प्रयत्नों का ही अप्रतिबंध रूप से अंत होता है दुख में, क्योंकि सारे प्रयत्न आते हैं अहंकार से. कोई प्रयत्न सफल होने वाला नहीं, क्योंकि कर्ता ही सारे दुखों का मूल है. यदि तुम प्रेम कर सकते हो बिना प्रेमी के वहां मौजूद हुए तो कहीं कोई दुख न होगा.

बिना प्रेमी की मौजूदगी के प्रेम में होना बहुत—बहुत कठिन जान पड़ता है. प्रेम ‘करने वाला’ उत्पन्न करता है दुख को, प्रेम नहीं. प्रेमी वे चीजें शुरू करता है जो समाप्त होती हैं नरक में. सारे प्रेमी असफल होते हैं, और मैं किसी अपवाद की नहीं कहता, केवल प्रेम कभी असफल नहीं होता. इसलिए तुम्हें समझ लेना है कि तुम्हारे प्रेम में तुम्हें वहां मौजूद नहीं होना चाहिए. प्रेम मौजूद होना चाहिए, लेकिन बिना किसी अहंकार के.

तुम चलो, तो चलने वाला वहां न हो. तुम करो भोजन, लेकिन भोजन करने वाला न हो वहां. जो कुछ जरूरी है तुम्हें करना होगा, लेकिन कोई कर्ता न रहे वहां. यही होता है संपूर्ण अनुशासन. यही है धर्म का एकमात्र अनुशासन. धार्मिक व्यक्ति वह नहीं होता जो किसी एक धर्म से संबंधित होता है. वस्तुत: धार्मिक व्यक्ति किसी एक धर्म से संबंध नहीं रखता है. धार्मिक व्यक्ति वह व्यक्ति है जिसने गिरा दिया है कर्ता को, जो जीता है स्वाभाविक रूप से, और बस अस्तित्व रखता है.

तब प्रेम की एक अलग ही गुणवत्ता होती है—वह आधिपत्य जमाने वाला नहीं होता, वह ईर्ष्यापूर्ण नहीं होता. वह मात्र देता है. कोई सौदा नहीं होता, तुम उसमें अदला—बदली नहीं करते. वह कोई वस्तु नहीं होता, वह एक छलकता हुआ उमडाव होता है तुम्हारे अस्तित्व का. तुम बांटते हो उसे. वस्तुत:, अस्तित्व की उस अवस्था में जहां कि अस्तित्व प्रेम का होता है, प्रेमी का नहीं, तो ऐसा नहीं होता कि तुम किसी एक के प्रेम में पड़ते हो और किसी दूसरे के प्रेम में नहीं होते, तुम प्रेम मात्र में होते हो. यह विषय—वस्तुओं का सवाल नहीं होता.

जब तुम तिरोहित हो जाते हो तब तुम होते हो प्रेम; जब तुम नहीं होते हो, तब केवल प्रेम होता है. अंततः, तुम संपूर्णतया भूल जाते हो प्रेम को, क्योंकि है कौन वहां उसे याद करने को? तो प्रेम एक फूल की भांति है जो खिलता है, वह सूर्य है जो उदित होता है, सितारों की भांति है जो रात का आकाश भर देते है—वह तो बस घटता है. यदि तुम एक चट्टान का भी स्पर्श करते हो, तो तुम प्रेम पूर्वक स्पर्श करते हो उसे. वह बन चुका होता है तुम्हारा अस्तित्व.

इसीलिए पूरब में हम केवल एक ही पाप जानते हैं, और वह है अज्ञान. और सब कुछ तो मात्र उसमें से आया उत्पादन होता है. जब मैं बोलता हूं प्रेम पर, तो मैं बोलता हूं उस प्रेम के बारे में जहां कि प्रेमी मौजूद नहीं रहता. और यदि तुम्हारा प्रेम तुम तक दुख ला रहा होता है, तो खूब जान लेना कि यह प्रेम नहीं. यह तुम्हारा अहंकार है जो ले आता है दुख. अहंकार विषमय बना देता है हर चीज को, जो कुछ भी तुम छूते हो उसको.

लेकिन अहंकार बहुत चालबाज होता है. जब कभी तुम दुख में होते हो वह सदा यही कह देता है कि कोई दूसरा है इसका कारण. यही तो चालाकी होती है जिस तरह अहंकार स्वयं को बचा लेता है . यदि तुम दुख में होते हो, तुम कभी नहीं सोचते कि कारण तुम्हीं हो. यह सदा कोई दूसरा होता है. पति दुख में है क्योंकि पत्नी निर्मित कर रही है दुख; पत्नी दुख में है क्योंकि पति निर्मित कर रहा है दुख; पिता दुख में है बेटे के कारण. अहंकार सदा जिम्मेदारी फेंक देता है दूसरे के ऊपर.

मैंने देखे हैं लोग जो दुख में हैं क्योंकि उनके बच्चे हैं, और मैंने देखे हैं लोग जो कि दुख में हैं क्योंकि उनके बच्चे नहीं हैं. मैं देखता हूं लोगों को जो प्रेम में पड़ गये हैं और दुखी हैं—उनका संबंध ही उन्हें दे रहा है बहुत तकलीफ, घबड़ाहट, पीड़ा—और मैं देखता हूं लोगों को दुखी जो प्रेम में नहीं पडे हैं, क्योंकि बिना प्रेम के वे दुखी—पीड़ित हैं.

ऐसा मालूम पड़ता है कि तुमने तो बिलकुल दृढ़ निश्चय ही कर रखा है दुखी रहने का. जो कुछ भी होती है स्थिति, तुम निर्मित करते हो दुख. लेकिन तुम भीतर कभी नहीं झांकते. कोई चीज भीतर होती है जरूर जो इसे बनाती है—वह अहंकार, कि तुम सोचते हो तुम हो, अहम् की वह धारणा. जितनी ज्यादा बड़ी धारणा होगी अहम् की, उतना ज्यादा बड़ा होगा दुख.

बच्चे कम दुख में होते हैं क्योंकि उनका अहंकार अभी विकसित नहीं हुआ है. फिर, जीवन भर लोग सोचते जाते हैं कि बचपन में जीवन स्वर्ग था. इसका एकमात्र कारण बस यही है कि अहंकार को समय चाहिए विकसित होने के लिए. बच्चों में ज्यादा अहंकार नहीं होता है. यदि तुम अपना अतीत याद करने की कोशिश करो तो तुम कहीं एक रुकाव पाओगे. तीन वर्ष की आयु पर या चार वर्ष की आयु पर, अकस्मात स्मृति वहां ठहर जाती है. क्यों?

तुम प्रभावित किए जाओगे तुम्हारे अपने अनुभव द्वारा, जो मैं कहता हूं उसके द्वारा नहीं. दुख की ओर देखना और सदा प्रयत्न करना कारण ढूंढने का, और तुम कारण पाओगे तुम्हारे स्वयं के भीतर. जैसे ही तुम जान लेते हो कि कारण भीतर है, तो रूपांतरण का बिंदु अपनी परिपक्वता तक पहुंच चुका होता है. अब तुम दिशा बदल सकते हो, अब तुम परिवर्तित हो सकते हो—तुम तैयार होते हो. जब तुम दूसरों पर जिम्मेदारी फेंकते जाते हो तो कोई परिवर्तन संभव नहीं होता है. जब तुम जान लेते हो कि तुम स्वयं जिम्मेदार हो उस तमाम दुख के लिए जिसे तुमने निर्मित किया है कि तुम स्वयं हो अपने नरक, तब ही बड़ी क्रांति घटती है. तुरंत, तुम बन जाते हो स्वयं अपने स्वर्ग.

इसलिए मैं कहता हूं तुम से संबंधों में उतरने के लिए, संसार में बढ़ने के लिए; अनुभव पाने के लिए परिपक्व होने के लिए, पकने के लिए, मंजने के लिए. केवल तभी जो कुछ मैं कह रहा हूं वह अर्थपूर्ण होगा तुम्हारे लिए. अन्यथा, बौद्धिक रूप से तुम समझ लोगे लेकिन अस्तित्वगत रूप से तुम चूक जाओगे.

– ओशो

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