मायावती उन दिनों मुख्य मंत्री थीं. एक इंटरव्यू में मैं ने उन से पूछ लिया कि आप अपने को बहुजन समाज का नेता क्यों कहती हैं? वह गुरुर से भर कर बोलीं, मैं बहुजन समाज की ही नेता हूं.
मैंने उन से प्रति प्रश्न किया कि फिर आप द्वारा बनवाए गए सारे स्मारक दलित जन के ही क्यों हैं, बहुजन के क्यों नहीं. ऐसे और भी कई सारे प्रश्न थे. वह मुस्कुराने लगीं. मनुवादी मीडिया का ताना दिया. इंटरव्यू के बाद मुझे अपने गेट तक छोड़ा उन्होंने. पहले भी उन के कई इंटरव्यू ले चुका था मैं. हर बार वह बाहर छोड़ने आती थीं बतियाती हुई.
लेकिन इस बार उन का यह इंटरव्यू नहीं छपा. बल्कि उलटे मेरी नौकरी खतरे में पड़ गई. बड़ी मुश्किल से बचा पाया था तब नौकरी. यह मायावती का मनुवादी मीडिया पर दबाव का कमाल था.
उस दिन दफ्तर मैं बाद में पहुंचा था, मायावती का दबाव पहले पहुंच चुका था. दफ्तर में साफ-साफ बता दिया गया था कि इंटरव्यू लिखने की ज़रुरत नहीं है. छपना तो दूर की बात थी. बाद के दिनों में कई सारे पत्रकारों की नौकरी खाई मायावती ने. जिस भी किसी पत्रकार ने गलती से भी अपने लिखे में मायावती के काम काज की आलोचना की वह कहीं भी, किसी भी मीडिया संस्थान में हो उस की नौकरी नहीं रही.
मायावती का साफ आदेश होता था कि या तो अखबार बंद कर लो या इसे निकाल बाहर करो. अखबार सब को चलाना होता था, पत्रकार नौकरी से बाहर हो जाता था. आज भी आलम यह है कि आईएएस अफसर और मीडिया मालिक अगर किसी से सचमुच में डरते हैं तो वह मायावती ही हैं. इसलिए कि कर्टसी तो उन के पास है ही नहीं. वह अपने गुरुर में किसी भी से जल्दी मैनेज भी नहीं होतीं. अगर मैनेज होती भी हैं किसी तरह तो वह भारी कैश पर. करोड़ों में मैनेज होती हैं, बहुत हाय तौबा करने पर.
खैर बाद के दिनों में अख़बारों में मायावती का प्रशस्तिगान ही छपता था, आलोचना नहीं. वह हार रही होती थीं, अखबार उनकी प्रचंड जीत का आख्यान लिख रहे होते थे, प्रचंड जीत का शंखनाद कर रहे होते.
इंटेलिजेंस रिपोर्ट और अखबार दोनों की रिपोर्ट एक होती. आंख तो उन की चाटुकारों ने बंद कर ही रखी थी, कान भी इस तरह बंद होता गया. नतीज़ा सामने है, मायावती साफ होते-होते पूरी तरह साफ हो गईं. यही काम पहले मुलायम करते रहे थे और बाद में अखिलेश यादव भी. अब तो जैसे समूची मीडिया में यह एक परंपरा सी हो गई है. सब के सब राजा का बाजा बजाने के अभ्यस्त हो चले हैं. बल्कि एक्सपर्ट हो चुके हैं. राजा कोई हो, बाजा इनका बजता रहेगा, शंखनाद होता रहेगा.
इन सत्तानशीनों को कोई यह बताने वाला नहीं होता कि आप मीडिया और इंटेलिजेंस मैनेज कर सकते हैं पर जनता और तथ्य को मैनेज करना बहुत मुश्किल होता है. अगर आप ने काम किया है तो काम अपने आप बोलेगा. काम बोलता है का नारा नहीं देना पड़ता. शमशेर की एक कविता है न, बात बोलेगी, हम नहीं / भेद खोलेगी बात ही.