क़ानून बनाना-लागू करना संप्रभु राष्ट्र का अधिकार, इसे कोई चुनौती नहीं दे सकता

तीन तलाक़ पर बहस ख़ासी गर्म है. देश की मुल्ला जमात इसके पक्ष में हैं. उनमें आंतरिक रूप से यह भय व्याप्त है कि एक बार अगर मुस्लिम पर्सनल लॉ को छूने दिया तो सिर पर आसमान बल्कि हिन्दू आसमान गिर जायेगा.

तीन तलाक़ के विरोधी इसे स्त्री अधिकारों का हनन बता रहे हैं. सरकार जिसका कार्य स्वतंत्र मानवाधिकारों की स्थापना है, इसका विरोध कर तो रही है मगर उसके वकील कोर्ट में लिजलिजी दलीलें दे रहे हैं.

सुप्रीम कोर्ट ख़ुद बॉल अपने पक्ष से सरकार की तरफ़ यह कह कर फेंक रहा है कि सरकार ही इस पर क़ानून क्यों नहीं बना देती? हमारे पास क्यों आयी है?

ज़ाहिर है यह मौक़ा सुप्रीम कोर्ट से पूछने का भी है कि जली कट्टू, दही हांड़ी जैसे न जाने कितने लुंजपुंज विषय आप स्वतः संज्ञान में ले लेते हैं. इनमें 5-7 लोगों के खरोंच लगने भर की संभावना होती है. यहाँ संभावित मुस्लिम आबादी 20 करोड़ का आधा भाग यानी 10 करोड़ लोग दबाव में हैं. इनके अधिकारों की रक्षा कौन करेगा ?

मेरे देखे तीन तलाक़ को केंद्र में ले कर वाचाली की जा रही है. विषय यह नहीं है कि तीन तलाक़ सही है या ग़लत… विषय है, क्या कोई सभ्य देश उन नियमों-क़ानूनों, जिनके धारण करने-पालन करने के कारण उसे सभ्य कहा जाता है, अपने नियमों-क़ानूनों पर किसी का हाथ ऊपर रखने की अनुमति दे सकता है? यह तो राष्ट्र, राज्य की पगड़ी से फ़ुटबाल खेलने की अनुमति देना नहीं होगा?

हमने 15 अगस्त 1947 को भारत के टुकड़े कर कटी-फटी आज़ादी स्वीकार की. 26 जनवरी 1952 को अपना संविधान अंगीकृत किया. संविधान की मूल आत्मा स्वतंत्र मानवाधिकार हैं.

भारत का प्रत्येक नागरिक (स्त्री-पुरुष) बराबर के अधिकार रखता है. हम इसी कारण सभ्य राष्ट्र कहलाये जाने के लायक़ हुए हैं कि हमने नागरिकों के लिये नियम तय किए हैं और उनका उल्लंघन करने पर नियमानुसार कार्यवाही की जाती है.

एक समय में नरबलि देने वाले, नरमांसभक्षी भी होते थे. क़ानून के शासन ने उन सबका दमन कर भारत को सभ्य जीवन दिया. अब भी ठग, चोर, डाकू, लुटेरे क़ानून तोड़ते हैं और शासन इसका भरसक दमन करता है.

तो ऐसी कोई जीवन प्रणाली राष्ट्र कैसे स्वीकार कर सका है जो मानवाधिकारों का हनन करे? क्या स्वतंत्र भारत राष्ट्र को 1400 वर्ष पहले के अमानवीय नियमों को स्वीकार करना चाहिए?

जिस शरिया, मुस्लिम पर्सनल लॉ अर्थात इस्लामी क़ानून को सभ्यता के नियमों से परे होने की दुहाई दी जा रही है उसमें तो इससे भी बड़े-बड़े विस्फोटक छुपे हुए हैं. आइये तिरछी नज़र बल्कि सीधी और तीखी नज़र डाली जाये.

… और जो स्त्रियां ऐसी हों जिनकी सरकशी का तुम्हें भय हो, उन्हें समझाओ, बिस्तरों में उन्हें तन्हा छोड़ दो और उन्हें मारो… आयत 34/4 सूरा अन-निसा… यह क़ुरआन की आयत है.

क़ुरआन पति को सरकश बीबी को बिस्तर पर तन्हा छोड़ने और पीटने के आदेश दे रही है. अब कोई मुसलमान अगर अपनी बीबी की धुनाई करे तो पुलिस को इस लिये हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए कि यह स्वघोषित अल्लाह का फ़रमान है?

…हाँ पुरुषों को उन पर एक एक दर्जा प्राप्त है और अल्लाह प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है. आयत 228 चैप्टर 2 सूरा अल-बक़रा…

क्या सभ्य समाज इस लिये स्त्री का दर्जा पुरुष से नीचा स्वीकार कर ले कि यह प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी अल्लाह का फ़रमान है?

तो यदि उसे ‘तलाक़’ दे दे, तो फिर उस के लिए यह स्त्री जायज़ नहीं है जब तक कि किसी दूसरे पति से विवाह न कर ले. फिर यदि वह उसे तलाक़ दे दे, तो फिर इन दोनों के लिए एक-दूसरे की ओर पलट आने में कोई दोष न होगा. यदि उन्हें आशा हो कि वे अल्लाह की सीमाओं को क़ायम रख सकेंगे. वे अल्लाह की सीमायें हैं, उन्हें वह ज्ञान रखने वाले लोगों के लिए स्पष्ट कर रहा है. आयत 230 चैप्टर 2 सूरा अल-बक़रा…

यह अल्लाह की तरफ़ से हलाला का आदेश है. कोई मुसलमान अगर अपनी बीबी को तलाक़ दे दे और फिर बाद में पुनर्विवाह करना चाहे तो अल्लाही आदेश है कि पहले पुरानी बीबी किसी के साथ निकाह करे. उसके साथ रात बिताये. अगले दिन यदि नया पति तलाक़ दे तो फिर पुनर्विवाह हो सकता है.

‘ये करे कोई, भरे कोई’ का इंसाफ़ है. तलाक़ तो शौहर ही दे सकता है तो उसके किये को बीबी क्यों भरे? यह तो न्याय के मूल सिद्धांतों के विपरीत है.

आपको जान कर आश्चर्य होगा कि ब्रिटिश दबाव में सऊदी अरब तथा यमन में 1962 में, ओमान में 1970 में दास प्रथा समाप्त की गयी. उससे पहले अरब देशों में ग़ुलाम बनाने, लौंडियाँ (sex slave) रखना क़ानूनी रूप से स्वीकार्य था.

आप स्वयं बताएं, चूँकि तथाकथित प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी अल्लाह की किताब में लौंडियाँ रखने के संदेश हैं, स्वयं अल्लाह के दूत मुहम्मद जी ने ग़ुलाम और लौंडियाँ रक्खीं, अतः सभ्य समाज, मुसलमानों को ग़ुलाम और लौंडियाँ रखने की छूट दे दे?

शिया लोगों के एक उपसमूह ज़ैदी में हरीरा की रस्म है. इसके अनुसार महरम यानी माँ, बहन, बेटी, फूफी, ख़ाला वग़ैरा के साथ लिंग पर रेशम लपेट कर कुछ शर्तों के साथ निकाह/ सेक्स करने की इजाज़त है.

जिन साहब को ये ग़लत काम पाप लगता हो मगर यह बात झूठ लगती हो वो इन किताबों को चैक कर सकते हैं… अल मुग़नी बानी इमाम इब्ने-क़दामा वॉल्यूम 7 पेज नम्बर 485, जवादे-मुग़निया बानी इमाम जाफ़र अल सादिक़ वॉल्यूम 5 पेज नम्बर 222, फिक़हे-इस्लामी बानी मुहम्मद तक़ी अल मुदर्रिसी वॉल्यूम 2 पेज 383…

इस कारण कि यह शियों के 12 इमामों में से एक जाफ़र अल सादिक़ की व्यवस्था है, सभ्य समाज इसे स्वीकार कर ले?

देशवासियो! क़ानून बनाना और उसे लागू करना पूरी तरह किसी भी स्वतंत्र और सभ्य राष्ट्र का अधिकार है. इसे कोई चुनौती नहीं दे सकता.

मुद्दा तीन तलाक़ सही या ग़लत का नहीं है. मुद्दा राष्ट्र पर बाहरी क़ानून थोपे जाने की छूट देना है.

अंग्रेज़ी की एक कहावत है ‘Catch bull by horns’. इसका मिलता-जुलता हिंदी मुहावरा ‘पहली रात को बिल्ली मारो’ होगा. बिल्ली पहली ही रात को मारी जानी चाहिये.

Comments

comments

LEAVE A REPLY