पिछले दिनों रेवाड़ी की लड़कियों ने जब अपने गांव में ही हाई स्कूल को इंटरमीडिएट कॉलेज तक upgrade करने के लिए अनशन किया तो एक मित्र ने कहा कि आखिर हर गांव में +2 तक का स्कूल क्यों नही होना चाहिए.
मेरा सवाल इस से उलट है… हर व्यक्ति को +2 और BA तक क्यों पढ़ना चाहिए? एक मुल्क को, एक समाज को कितने ग्रेजुएट्स की ज़रूरत होती है?
एक bus Conductor को, एक टैक्सी ड्राईवर को, या किसी राज मिस्त्री को, किसी प्लम्बर को आखिर BA तक क्यों पढ़ना चाहिए? प्लंबर, इलेक्ट्रीशियन, राज मिस्त्री बनने की शिक्षा कहां मिलती है?
एक अन्य मित्र का कहना है कि आपने स्वरोजगार तो ऐसे लिख दिया मानो कही हलुवा खाना हो, प्रत्येक ऊँगली एक बराबर नहीं होती, स्वरोजगार हर किसी के बस का नहीं.
कितना जोखिम, कितनी लागत, कितना समय, कितनी क्षमता चाहिए आप सब अच्छी तरह से जानते है, और आज के समय में किस तरह से सरकारी विभागों से पाला पड़ता है किसी उद्यमी का सभी परिचित हैं.
शायद व्यापार करना आज सबसे मुश्किल हैं. आधुनिक गला काट प्रतियोगिता के दौर में स्वरोजगार की अवधारणा दूर की कौड़ी लगती हैं. आप ही समीक्षा कर के देखें कि जिन 8 करोड़ का जिक्र आपने किया, उनमें से कितने सफल हुए.
मेरा कहना है कि भारत में हम जब भी स्वरोजगार की बात करते हैं तो हर व्यक्ति के मन मे एक Business, कोई SME, कोई छोटी-मोटी factory की बात आती है.
भारतीय समाज में tea-stall चला के, पकोड़े बेच के, रिक्शा चला के आजीविका कमा लेना बहुत-बहुत छोटा और हीन काम माना जाता है.
इसलिए जब हम स्वरोजगार की बात करते हैं तो सबके मन मे कोई business man या छोटा मोटा उद्योगपति बनने का खयाल ही आता है.
जबकि ज़मीनी हक़ीक़त इसके इतर है. 125 करोड़ लोगों के इस देश मे ऐसे हज़ारों नही लाखों trades हैं जहां रोजगार की अपार संभावना है, जहां आप 1000 या 2000 रु रोज़ाना कमा सकते है, मने 30 या 40, 50 हज़ार रु महीना.
परंतु आम हिंदुस्तानी इनमें से कोई भी काम करना नहीं चाहता, सबको सिर्फ और सिर्फ सरकारी नौकरी ही चाहिए.
एक युवा ने लिखा कि हमारे देश में लड़की का बाप अपनी बेटी सरकारी नौकरी में चपरासी को ब्याह देगा पर किसी सफल businessman को नहीं ब्याहेगा. अब सफल Business man का ही नंबर नही आया तो बेचारे रिक्शा चालक या प्लंबर का कैसे आएगा?
समस्या ये है कि भारत में हम, श्रम और श्रमिक से बहुत नफरत करते हैं. हम हिंदुस्तानियों को पसीने की बू से बड़ी नफरत है, हमें श्रमिकों के काले कपड़ों से, उनके छाले पड़े खुरदुरे हाथों से बड़ी नफरत है.
यहां पंजाब में जन सेवा और जननायक जैसी गाड़ियां जिनमें श्रमिक यात्रा करते हैं, उनमें यात्रा करना एक बहुत बड़ी वर्जना है. इन गाड़ियों को ‘भैयों’ मजदूरों की गाड़ी कहा जाता है, कुछ लोग तो शताब्दी से नीचे यात्रा करने में ही तौहीन समझते हैं,
ऐसे में एक पूरे देश, पूरे समाज की एक सामूहिक चेतना में ही समस्या है जहां शारीरिक श्रम यानि Blue Collar Job करना ही पाप है… श्रमिक Blue Collar Job करने वाले नए अछूत हैं इस देश में…
बेशक समय बदल रहा है, बेशक Technology के कारण नौकरियां खत्म हो रही हैं, पहले जिस काम को 10 लोग करते थे अब उसके लिए 1 की भी ज़रूरत नहीं, इसके बावजूद हमारे युवा बदलते समय और परिस्थिति को समझने को तैयार नहीं.
वो एक फ़र्ज़ी शिक्षा में 16 साल और लाखों रु खर्च कर एक फ़र्ज़ी डिग्री ले के इस आस में बैठे हैं कि मोदी उनको नौकरी देंगे… कौशल (skill) उनमें कोई है नहीं, न लेना चाहते हैं, blue Collar काम करेंगे नही, white collar मिलेगी नहीं… बैठे रहो, मोदी को, व्यवस्था को और अपनी बेरोज़गारी को गरियाते रहो.
उधर राधेश्याम मोची पटियाला के NIS चौक पे खिलाड़ियों के महंगे Nike, Reebock और Adidas के जूते रिपेयर कर लाख रूपए महीना कमा रहा है.
जब तक ये समाज राधेश्याम मोची को एक डॉक्टर के बराबर सम्मान देना नहीं सीखेगा इस देश की बेरोज़गारी कभी दूर न होगी.
हमे इस देश मे वो दिन लाना होगा जब बेरोज़गार MBA कुंवारा रह जाये और एक सफल मोची मने cobbler की शादी शहर की सबसे खूबसूरत लड़की से हो.
मैंने सुना है कि अमरीका में ऐसा ही होता है, भारत अमरीका कब बनेगा?