नरेंद्र मोदी संत नहीं हैं, संत होते तो कबका सुपुर्द – ए – ख़ाक किये जा चुके होते.. मोदी जिस दुनिया में हैं वहाँ षड्यंत्र-साजिशें जीवन की अनिवार्यता है.
एक साथ कई मोर्चों पर लड़ने वालों के साथ अक्सर ऐसी परिस्थिति तो आती ही है जब उन्हें कुछ मोर्चों पर कोम्प्रोमाईज़ करना पड़ता है. फ़िलहाल देखा जाए तो घरेलू मोर्चों पर मोदी के
सामने तीन बड़ी चुनौतियाँ हैं, पहली हिन्दू समाज में अर्थव्यवस्था के प्रति उम्मीद बनाये रखना, दूसरी ब्रेकिंग इंडिया फोर्सेस की गतिविधियों पर अंकुश लगाना और तीसरी भारत के स्थायी शासक वर्ग अर्थात प्रशासनिक नौकरशाही को नियंत्रित करना…
इसमें सबसे बड़ी चुनौती तीसरे नंबर की है, आज तक मोदी नौकरशाही को नाथने में सफल नहीं दिखे हैं. भारत का ये स्थायी शासक वर्ग बेहद शक्तिशाली है. इसने पहले भी हर दौर में सरकारों के पतन की पटकथा लिखी है. इसे सीधे छेड़ने की हिम्मत मोदी भी नहीं कर सकते हैं, पर ऐसा लगता है कि मोदी अब इससे निपटने के लिए एक और फ्रंट खोल रहे हैं… और इस फ्रंट पर है अथाह पूँजी… पूँजी और पूँजी के खिलाड़ियों का इस्तेमाल करके गुजरात में नौकरशाही को साधने वाले मोदी अब भारत में भी वही प्रयोग दुहराते दिख रहे हैं.
इन सब में आम जन को काफी कुछ गँवाना पड़ सकता है या पड़ रहा है क्योंकि पूँजी और निरकुंश सत्ता (प्रशासन) का टकराव बलि तो लेता ही है. मोदी पूँजी को पसंद करते हैं यह जगजाहिर बात है. इसमें कुछ गलत भी नहीं है, भारत दरिद्रता के दर्शनशास्त्र पर नहीं चलाया जा सकता है. पूँजी का एक विशेष गुण यह भी है कि इसका कोई एक देश नहीं होता है. अतः देश समाप्त हो जाये तो पूँजी को फ़र्क नहीं पड़ता बस बाज़ार बचा रहना चाहिए…
शेर मारने के लिए बाघ पाल रहे मोदी कितने सही साबित होंगे यह भविष्य के गर्भ में हैं..
– वरुण कुमार जायसवाल