आंसुओं से कभी भी भयभीत मत होना. तथाकथित सभ्यता ने तुम्हें आंसुओं से अत्यंत भयभीत कर दिया है. इसने तुम्हारे भीतर एक तरह का अपराध भाव पैदा कर दिया है. जब आंसू आते हैं तो तुम शर्मिंदा महसूस करते हो.
तुम्हें लगता है कि लोग क्या सोचते होंगे? मैं पुरुष होकर रो रहा हूं!यह कितना स्त्रैण और बचकाना लगता है. ऐसा नहीं होना चाहिये. तुम उन आंसुओं को रोक लेते हो… और तुम उसकी हत्या कर देते हो जो तुम्हारे भीतर पनप रहा होता है.
जो भी तुम्हारे पास है, आंसू उनमें सबसे अनूठी बात है, क्योंकि आंसू तुम्हारे अंतस के छलकने का परिणाम हैं. आंसू अनिवार्यत: दुख के ही द्योतक नहीं हैं; कई बार वे भावातिरेक से भी आते हैं, कई बार वे अपार शांति के कारण आते हैं, और कई बार वे आते हैं प्रेम व आनंद से.
वास्तव में उनका दुख या सुख से कोई लेना-देना नहीं है. कुछ भी जो तुम्हारे ह्रदय को छू जाये, कुछ भी जो तुम्हें अपने में आविष्ट कर ले, कुछ भी जो अतिरेक में हो, जिसे तुम समाहित न कर सको, बहने लगता है, आंसुओं के रूप में.
इन्हें अत्यंत अहोभाव से स्वीकार करो, इन्हें जीयो, उनका पोषण करो, इनका स्वागत करो, और आंसुओं से ही तुम जान पाओगे प्रार्थना करने की कला.
आंसुओं से तुम सीखोगे देखने की कला. आंसुओं से भरी आंखें सत्य को देखने की क्षमता रखती हैं. आंसुओं से भरी आंखें क्षमता रखती हैं जीवन के सौंदर्य को और इसके प्रसाद को महसूस करने की.
ओशो, दि डायमंड सूत्र, प्रवचन #9