पहला खाड़ी युद्ध : अरब और इस्लामिक देशों में ही मिलते हैं इतने बेवक़ूफ़

सद्दाम हुसैन ने साल 1990-91 में कुवैत में सेना भेज के कब्ज़ा कर लिया क्योंकि वो कुवैत को ऐतिहासिक रूप से इराक का हिस्सा मानता था. सद्दाम हुसैन की इस विस्तारवादी हरकत को अरब देशों ने आपस में सुलझाने की बजाय अमेरिका को पंच परमेश्वर बनाया.

अमेरिका के नेतृत्व में NATO सेनाओं ने इराक पे आक्रमण किया. इस लड़ाई में खर्च होने वाले बजट का 70% बोझ भी सऊदी अरब ने उठाया था, लड़ाई के लिए अमेरिका को बेस भी सऊदी अरब, इजीप्ट, पाकिस्तान, लेबनान, अमीरात ने दिया था.

उधर सीरिया ने लेबनॉन पे कब्ज़ा कर रखा था और सद्दाम हुसैन इसके खिलाफ था और उसने सीरिया से भी लड़ाई मोल ली हुई थी, यमन और जॉर्डन अमेरिका के आने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन वो इराक के पक्षधर थे और खुद लड़ाई करना चाहते थे.

यासेर अराफ़ात भी इज़राइल और फिलिस्तीन मसला ले के कूद पड़ा और इराक के समर्थन में आ गया, जिसके फलस्वरूप सीरिया ने 2 लाख फिलिस्तीनी जो कि जॉर्डन के में नागरिक बन गए थे उनको तुरंत खदेड़ दिया, आज तक वो मारे मारे फिर रहे हैं.

उधर सऊदी अरब ने यमनी नागरिकों की दुर्दशा की क्योंकि यमन ने इराक का साथ दिया. सीरिया के राजा अस्साद की भी जानी दुश्मनी थी सद्दाम हुसैन से और उसने 1,00,000 थल सेना के लड़ाके इराक के खिलाफ NATO समर्थन में देने का ऐलान किया.

पाकिस्तान और संयुक्त अरब ने भी सेनाएं भेजी, दूर बांग्ला देश जिसका कोई इस मामले से लेना देना भी नहीं था उसकी भी सेनाएँ भी गयी थी इराक से लड़ने. खबर तो ये भी थी कि UAE ने ही लड़ाई के खर्च का बचा 25% का बोझ उठाया था.

तो इस तरह अमेरिका ने इनको लतियाया भी और लतियाने का खर्चा भी वसूला… जर्मनी और जापान ने लड़ाई में जाने से मना कर दिया लेकिन 10 करोड़ डॉलर का सहयोग दिया था.

इज़राइल का कोई लेना देना नहीं था, वो खामोश था उसने अमेरिका को बेस भी नहीं दिया था. अमेरिका ने न ही कोई सहयोग माँगा क्योंकि इज़राइल के आने से लड़ाई कुछ और ही मोड़ पे चली जाती.

इज़राइल के लड़ाई से दूर रहने के बावजूद इराक ने सबसे पहला मिसाइल इज़राइल पे दागा, इसके साथ ही UAE और सऊदी अरब पे भी मिसाइल दागा. इस तरह मिसाइल की चोट खाया इजराइल भड़क गया, उसके लड़ाकू विमान, मिसाइल तैनात हो गए.

इजराइल के राष्ट्रपति इज़हाक शमीर ने कहा कि वो अब इस लड़ाई को अंतिम अंजाम तक ले के जाएगा और अरब देशों को मिट्टी में मिला देगा.

अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश (Sr.) को खुद इजराइल जाकर ऐसा नहीं करने का मिन्नत पड़ी और अमेरिका ने इराक के मिसाइल से बचाव के लिए इजराइल में अपने पेट्रियट मिसाइल का जत्था तैनात किया.

उधर जॉर्डन बिन बुलाए बाराती की तरह इज़राइल से लड़ने को तैयार हो गया लेकिन 20 मिसाइल की खुराक खाकर चुप हुआ, अगर जॉर्डन ने आगे लड़ाई छेड़ी होती तो अमेरिका के लिए इजराइल को रोकना मुश्किल होता. आज इतिहास पहले खाड़ी युद्ध पर कुछ और भी कहता.

लड़ाई के अंतिम दौर में जब इराक कुवैत से बाहर जाने लगा तो उसने एक-एक करके लगभग सभी तेल के कुओं में आग लगा दी जिसको बुझाने के लिए काफी मेहनत करना पड़ी.

उस समय हम दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ते थे, केबल TV नया-नया चालू हुआ था और BBC पे लड़ाई की लाइव कवरेज झकझोरा करती थी. कौतूहल भी था कि क्या होगा. भौतिक विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते Scud और Patriot मिसाइल की तकनीकी पे बहस और अनुसन्धान ज्यादा होता था.

इस लड़ाई का ज़िम्मेदार कौन? इन सबमें और आज के हालात में अरब देश का क्या रोल और दोष है? सब लोग अपने अपने तरीके से व्याख्या करके नतीजे निकाल सकते हैं.

अपने घर के झगड़ों को निबटाने के लिए बाहरी पंच और ठेकेदारों को बुलाओगे तो वो ठेकेदारी और पंचायती का टैक्स तो वसूलेगा ही. फिर भी सारे इस्लामिक देश के लोग अमेरिका और इज़राइल को गरियाते हैं… इतने बेवक़ूफ़ उधर अरब और इस्लामिक देशों में ही मिलते हैं…

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