प्रिये…
प्रेम अस्तित्व का पहला राग है और मिलन पहला ताल. हम-तुम भी एक दिन ऐसे ही मिले थे जैसे मिल गया था तीन ताल… यमन की उस बंदिश से.. “सखी ए री याली पिया बिन…”
सुना है आजकल मेरा प्रेम गुनगुनाती हो मधुवंती की तरह. इधर मैं भी किसी झप ताल के टुकड़े जैसा तड़पता हूँ.. ये जीवन टुकड़ों में सजा एक राग है पगली, जिसे प्रेम कहते हैं.. इसे साधते रहना ही तो हमारी नियति है..
इधर लू के थपेड़ों में.. जलती दुपहरी में.. आधी रात के किसी अधूरे ख़्वाब में तुम किसी दूर देश के संगीत जैसे बजती हो… देखो न.. तब पखावज की ‘परन’ जैसा घबराता हूँ मैं… तुम सन्तूर पर बजते दरबारी जैसा थाम लेती हो मेरा हाथ.. तब लगता जीवन वो सुखद ठहराव है.. जिसे हम तुम अपनी भाषा मे ‘सम’ कहते हैं.. लेकिन….. कब तक?
वो विरह का लंबा आलाप भी तो जल्दी खत्म होने का नाम नहीं लेता..
मुझे तो लगता है विरह प्रेम का वो ‘विवादी स्वर’ है.. जिसकी कोई जरूरत तो नहीं लेकिन जिंदगी की इम्तेहान में हमें और तुम्हें इसे याद रखना पड़ता है.
यकीन है हम मिलेंगे एक दिन इन्हीं किसी राग और ताल की तरह… बस तुम घबराना बिल्कुल नहीं.. वरना सोच लो सिर्फ एक स्वर बदलने से भूपाली, शिवरंजनी हो जाता है..
सिर्फ संगीत ही नहीं.. प्रेम भी साधना है पगली.
तुम्हारा
जीवन संगीत