बाहुबली क्या पुरुष प्रधान फिल्म है? नहीं! फिल्म में हीरो तो एक ही है, दो नाम से दो जन्मो में, अमरेन्द्र और महेन्द्र बाहुबली. मगर फिल्म में तीन पीढ़ी की तीन नायिका हैं, शिवगामी, देवसेना और अवंतिका.
कहानी में तीनों का चरित्र नायक से हर मामले में बीस ही है. तीनों दुश्मन को तलवार से काट सकती हैं, राजनीति में उनका वर्चस्व है, प्रशासन में उनकी बराबरी की भागीदारी है, वे घूँघट में नहीं रहती बल्कि दरबार में अपना हुक्म चलाती है.
वो पति के मरने पर सती नहीं होती बल्कि शत्रु से बदला लेने की प्रतिज्ञा लेती है, वो नालायक पति को अपने ऊपर बोझ नहीं बनने देती ना ही उसके कुकर्मो में उसका साथ देती है.
वो बड़े बड़े राजपरिवार के राजकुमार के शादी के प्रस्ताव को खुले में अस्वीकार करती है और स्वयंवर करती है और दरबार में अपनी बात स्वतंत्र होकर कहती है. उसे कोई डर नहीं, कोई झिझक नहीं, उसे किसी का दबाव स्वीकार नहीं.
वो राजमाता है जिसके नाम से राजा शपथ लेता है, वो महारानी है जिसका आदेश ही शासन है, वो समय आने पर योद्धा का रूप में भी आ जाती है. वो सुकोमल नहीं बल्कि कोई बुरी नजर से हाथ लगाए तो उसका हाथ काटने में भी मिनट नहीं लगाती.
वो बच्चों से प्रेम करती है मगर जहां बात देश हित में कुशल नेतृत्व का चुनाव की हो तो उसे ही चुनती है जो सर्वश्रेष्ठ हो. इन तीनों नारी चरित्र को फिल्म से निकाल लीजिये, फिल्म का आकर्षण समाप्त.
ये तीन नायिका उन इतिहासकारों को जवाब देती हैं जो हिन्दुस्तान के इतिहास को सती और जौहर से आगे देखने को तैयार नहीं हैं. यह पश्चिम के आधुनिक समाज को चुनौती देती हुई कहती है कि अभी उनका महिला सशक्तीकरण कितना खोखला और हकीकत से दूर है.
यह बॉलीवुड के उन फिल्मकारों की आंखे खोलती है जो अपनी फिल्मो में हिरोइन को फिल्म के हीरो से प्रेम के लिए नाचने गाने के लिए कम से कम कपड़े में दिखाना बॉक्स ऑफिस की सफलता का अंतिम जुगाड़ मानते हैं और एक हॉट आइटम डांस फिल्म के हिट का फार्मूला.
यह फिल्म उनके मुँह पर तो तमाचा है जो कन्या भ्रूण ह्त्या में लिप्त हैं या इससे उबरने के लिए नए नए स्वांग रचते हैं.
अपने गौरवशाली इतिहास को देखने के बाद कौन नहीं बनना चाहेगा देवसेना. यह फिल्म की कहानी उन साहित्यकारों को भी सीख है जो महिला साहित्य के नाम पर पता नहीं क्या कचरा परोस रहे हैं. उन महिलाओं को भी एक सबक है जो आज आधुनिकता का ढोल पीटने के नाम पर क्लब से लेकर पार्लर के बीच में ही अपने होने को परिभाषित कर रही हैं.
नारी पर बात करने वाले हर एक को यह फिल्म कोई ना कोई सन्देश देती है बशर्ते वो इसे खुली आँखों से देखे. सपनो में ले जाने वाली इस फिल्म को कोरी कल्पना कहकर नकारने वाले असल में भारत के स्वर्णिम इतिहास से या तो परिचित नहीं या फिर उन्हें सनातन संस्कृति से जाने अनजाने घृणा की हद तक नफरत है, वरना ऐसे अनेक ऐतिहासिक साक्ष्य हैं जो इन नायिकाओं के चरित्र को प्रमणित कर सकते हैं.
आज बाहुबली के इस पक्ष पर लिखने के पीछे एक वजह थी तीन तलाक. ये तीन चरित्र, तीन तलाक पर बहस करने वालों को जवाब है, जिसके आगे फिर कोई नया सवाल नहीं खड़ा किया जा सकता.
1400 साल की परम्परा की बात करने वालों, यह भी तो देखो कि उसके पहले भारत की महान परम्परा क्या थी. इसके बाद भी क्या किसी और तर्क या तथ्य की जरूरत रह जाती है?
जय माहिष्मती में जय हिन्द का स्वर है. भारत माता की जय में नारी-शक्ति का ही भाव है. सनातन संस्कृति में शक्ति के लिए माँ दुर्गा की पूजा ही हर योद्धा करता आया है. जिस देश के हर पर्वत के शिखर पर देवी शक्तिपीठ हो, उस समाज की नारी के साथ आज अगर कोई असमानता है तो वो यकीनन हमारी देन नहीं हो सकती. ये सभी कुप्रथायें बाहर से आयी हैं. और जो हमारा नहीं, गुलामी के हर उस प्रतीक को कब तक हम अपने ऊपर बोझ बना कर रखेंगे?