जब आप दूसरे देशों पर अब्राहमिक मज़हब या रिलिजन का हमला देखेंगे तो एक अजीब सी चीज़ दिखाई देगी. जिन जगहों पर इन्होने हमले किया वहां पहले से सभ्यता-संस्कृति, उनका अपना धर्म था. लेकिन हमले के कुछ ही साल के अन्दर वहां से स्थानीय धर्म-संस्कृति, पूरी सभ्यता गायब हो गई.
पूरा-पूरा देश ही एक नए मजहब का हो गया, अपने ही पुरखों को पैगन, काफ़िर, और अन्य गालियाँ देने लगा. जब यही आक्रमण भारत पर हुए तो अजीबोग़रीब बात ये हुई कि जिन तरीकों को उन्होंने दर्जनों सभ्यताओं पर सफलतापूर्वक आजमाया था वो यहाँ नाकाम हो गए.
नाकामी के कारण वैसे तो अलग से ढूंढे नहीं गए हैं फिर भी जब ‘सेंट’ फ्रांसिस ज़ेवियर पंद्रहवीं शताब्दी के गोवा में पानी पी पी कर ब्राह्मणों को कोसते हैं तो कारण स्पष्ट हो जाता है.
प्रबल संभावना है कि एकसार समाज पर जैसे हमले राजा के हारते-मरते और रानियों राजकुमारियों को यौन-गुलाम बना दिए जाने पर कामयाब हो जाते थे, वो तरीके भारत के कई पर्तों वाले समाज पर नाकाम रहे.
बौद्धिक-दार्शनिक पक्ष चूँकि एक समुदाय अपनी ज़िम्मेदारी मानता था इसलिए उस पूरे समुदाय को जीते बिना धार्मिक पक्ष पर विजय असंभव थी.
समस्या ये भी थी कि ये समुदाय तलवार के जोर पर हार नहीं मानता था. तर्कों को काटने के बदले तलवार से गला काट देने को निकृष्ट मानने वाले ब्राह्मण हथियारों से हारते नहीं थे.
ऊपर से इनकी किताबों की नालंदा जैसी लाइब्रेरी-पुस्तकालय या विश्वविद्यालय जला देने पर, मंदिरों को तोड़ देने पर भी काम नहीं होता था (सोमनाथ सिर्फ इस्लामिकों ने ही नहीं एक बार पुर्तगाली हमले में भी टूटा था).
ये पूरी पूरी किताबें, लम्बे चौड़े ग्रन्थ श्रुति-स्मृति परंपरा से याद रख कर एक पीढ़ी आगे बढ़ा देते थे. सारी किताबें जलाने का फायदा ही नहीं, जब तक हरेक को ढूंढ कर ज़िबह ना कर दो, बचा रहेगा!
ये एक प्रमुख कारण था जिसकी वजह से 2000 साल में दूसरे धर्मों के उदय और अब्राहमिक मज़हबों के हमले झेलते हुए, राजसी-सत्ता पक्ष का प्रश्रय ना होने के बावजूद संस्कृत भाषा भी बची रही.
भाषा के बचे रहने से ग्रन्थ और धर्म भी जीवित रहा. इस लिहाज से देखें तो रेज़िस्टेंस (resistance) की सबसे लम्बी, करीब 1200 साल तक लड़ते और जीवित रहने की परंपरा हिन्दुओं की है.
इस प्रक्रिया में हमारे हाथ से अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे इलाके जाते भी रहे. लेकिन कई सदियों से जारी इस जंग में हम हारे भी नहीं हैं.
समय बदलने के साथ-साथ जैसे-जैसे लड़ाई के तरीके बदले, सीधे सैन्य हमले (हार्ड टैक्टिस) बदल कर प्रचार तंत्र के हमले के तौर पर सामने आये (सॉफ्ट टैक्टिस). कठिन शब्द में तन्यकता और आसान शब्दों में लचीलापन (resilience) कहलाने वाला हिन्दुओं का गुण यहाँ फिर से काम आया.
सुधार के अभियान जब अन्दर से ही चलने शुरू होते हैं तो आम हिन्दुओं का उसे समर्थन ही होता है, कट्टरपंथी कबीलाई मजहबों की तरह उसे क़त्ल और हिंसा नहीं झेलनी पड़ती.
हाल में ही प्रचार तंत्र से मुकाबला करने के लिए दक्षिणपंथी शक्तियों के कहीं एकजुट होने की जरूरत महसूस की जाने लगी थी.
इस काम को आगे बढ़ाने के लिए कई राष्ट्रवादी छोटे स्तर पर सामने भी आये, लेकिन तकनीकी की कम जानकारी और ढेर सारे आर्थिक स्रोत ना उपलब्ध होने के कारण काम में कोई गति नहीं आई थी.
छोटे वेबसाइट थे, बड़ा अखबार और टीवी जैसा माध्यम नहीं था. कुछ महीने पहले एक बड़े पत्रकार के नौकरी छोड़कर अपना कुछ शुरू करने की बात से लोगों की उम्मीद जाग गई थी.
इस नए चैनल “रिपब्लिक” के आते ही उसका यथोचित स्वागत भी हुआ. अंग्रेजी में होने के बाद भी भारतीय लोगों का एक बड़ा वर्ग उसका ग्राहक हो गया. कईयों को अपनी टी.आर.पी. पर हुए उसके असर से बिलबिलाते भी देखा गया.
इस कड़ी में हालिया टाइम्स नाउ चैनल का एफ.आई.आर. भी है, जो किसी टेप की चोरी का है. ये एक बहुत बड़ा नैतिकता का प्रश्न भी खड़ा करता है.
अर्नब छह महीने पहले ही जो चैनल छोड़ चुके हैं, अगर उसका टेप वो आज इस्तेमाल कर रहे हैं तो सवाल ये है कि छह महीने से टाइम्स नाउ के मीडिया मुग़ल इसे दबाये क्यों बैठे थे?
किस दबाव में उन्होंने छह महीने में ये सच जनता से छुपाये रखा? चौथे स्तंभ होने का दम भरने वालों की जनता के प्रति जवाबदेही कहाँ गई ? ये मामला ये सवाल भी उठाएगा कि क्या भारतीय कानूनों में मीडिया के इस अनैतिक बर्ताव की रोकथाम के लिए प्रयाप्त कानून हैं क्या?
ध्यान रखिये कि अपनी बैलेंस शीट के हिसाब से भारत में टाइम्स नाउ इकलौती फायदे में चल रही कंपनी है. बाकी मीडिया मुगलों (एन.डी.टी.वी. से लेकर इंडिया टीवी तक) का धंधा साल दर साल घाटे में ही दिखाया जाता है.
नुकसान का पहला ही झटका झेलने पर जो हो रहा है उसके लिए हिंदी दोहा सबने बचपन में ही पढ़ा होगा : “सोना सज्जन साधुजन टूटी जुड़े सौ बार। दुर्जन कुम्भ कुम्हार के एकै धका दरार।।”
बाकी श्वान जिस कार्य विशेष के लिए खम्बे को प्रिय समझता है, उसकी कार्य विशेष के लिए चौथा स्तंभ भी कई दिनों से उपयुक्त माना जाता है. मीडिया को मंडी का समानार्थक बनाने वालों को सार्वजनिक चीरहरण पर शर्माना नहीं चाहिए.