मेरा मित्र है अखिलेश ताखि हिमाचल से. हम एक साथ स्कूल में दिल्ली में पढ़े, अखिलेश का कॉलेज अलग हुआ लेकिन मुलाकात होती रही जो कि आज तक कायम है…
ताखि परिवार फौजियों का परिवार है, दो चाचा और बड़े, छोटे और कई अन्य चचेरे, फुफेरे, ममेरे भाई फ़ौज में…
बात 1999 की है, कारगिल युद्ध के समय हम लोग बड़े भाई के साथ TV पर खबर देख रहे थे कि सरकार ने हर वीरगति को प्राप्त फौजी के पार्थिव शरीर को उनके परिवार को भेजने का इंतज़ाम किया है…
समाचार चल रहा था और बड़े भाई फूट-फूट कर रोने लगे… हमें लगा कि फौजी को फौजी का पार्थिव शरीर देखा नहीं जा रहा… हमने उनको गले लगा लिया…
सब रो रहे थे या रुआंसे थे… भाई साहब ने पूछा तुम सब काहे रो रहे हो बे…
हम लोगों ने कहा कि कितने फौजियों के मृत शरीर आ रहे हैं, इसलिए दुःख के आंसू हैं…
भाई साहब ने गालियों का अम्बार लगा दिया… बोले- लड़ाई है तो वो होगा ही… मैं किसी और बात पर रो रहा हूँ… इनमें कुछ ख़ुशी के भी आँसू हैं…
जब हमने नहीं समझा और पूछा तो उन्होंने बताया…
जब वो फौज में थे तो 1987 में उनको उनकी रेजीमेण्ट के साथ श्री लंका में IPKF में शामिल होने का आदेश मिला. वो डेढ़ वर्षों तक श्री लंका में जाफ़ना के जंगलों में LTTE से लड़े.
फिर एक दिन 4 गोलियां लगीं कमर, पेट और जांघों में… होश आया तो खुद को दिल्ली कैंट के फौजी हस्पताल में पाया. उन दिनों जो भी IPKF में गया तो उसको अपने घर बात करने के लिए 15-20 दिन लग जाते थे.
उनको और घर वालों को एक-दूसरे का पता ही नहीं होता था कि क्या चल रहा है. उनकी रेजिमेंट में हिमाचल के ही आस पास के गाँव के भी कुछ फौजी थे.
उनमें से एक फौजी साथी की एक दिन गर्दन में गोली लगने से मौत हो गयी, ये लड़ाई घने जंगलों में हुई थी. दो दिन बाद लाश को वहीँ दफना के रेजिमेंट आगे बढ़ गयी.
वो फौजी साथी भी 15-20 दिन बाद गाँव बात करता था… जब 1 माह तक फोन नहीं आया तो उसकी पत्नी भाई साहब के घर चली आयी और जब कुछ दिन बाद (लगभग 1 महीने के बाद) भाई साहब की घर बात हुई तो उस महिला ने पूछा कि उसके पति का क्या हाल है. भाई साहब के कहा कि कांटेक्ट नहीं है, जब भी इधर आएगा तो बात हो ही जाएगी.
इस तरह उन्होंने उस फौजी की मौत की बात फिलहाल छिपा ली. लेकिन जब 3 माह बीत गए और बात नहीं हो पाई तो वो महिला फिर भाई साहब के घर आयी और जब इनका फ़ोन गया तो उनसे सीधा बोला कि अगर उनको कुछ हो गया है तो उनकी अस्थियाँ भिजवा दो जिससे वो उनका क्रिया कर्म करवा दें, और अस्थियों को हरिद्वार जाके गंगा में प्रवाहित करा दें.
तब भाई साहब ने बता दिया कि क्रिया कर्म करवा दो, अस्थियां जब जहाज़ जाएगा तो भिजवा देते हैं.
वादा तो कर दिया लेकिन अब मुसीबत ये कि जंगलों में कहाँ लाश दफ़न है कैसे पता चलेगा… तो उन लोगों ने वहां एक कुत्ते को गोली मारी और उसको जलाया.. फिर राख और कुछ छोटी-छोटी हड्डियां डाल के जाफना से हिमाचल भेज दिया.
इसके बाद उनकी रेजिमेंट फिर जंगलों में लड़ने चली गई. इस लड़ाई में दुश्मन दिखता नहीं था और गोलियां चारों तरफ से आती थी. भाई साहब को चार गोलियाँ लगीं और उनकी खुशकिस्मती से ये गोलियां उस जगह लगीं जहाँ भारतीय वायुसेना का हेलिपैड नज़दीक था.
उनको वहां से एयरलिफ्ट करके, इंडियन कोस्ट गार्ड के जहाज़ में भेजा गया और फिर उन लोगों ने मद्रास होते हुए दिल्ली कैंट भेज दिया. लेकिन उनके उस साथी की किस्मत ऐसी नहीं थी. उसको गोली गर्दन में लगी और वो वही ढेर हो गया था.
उस समय फौजी के मृत शरीर को घर भेजने की कोई सुविधा नहीं थी. घायल फौजी ही किसी तरह मदद पा रहे थे, मृतक को वहीँ दफनाना मजबूरी थी क्योंकि जलाने से आग और धुएं से उनकी लोकेशन का LTTE को पता चल जाता.
भाई साहब की आँखों में आंसू कारगिल के शहीदों के पार्थिव शरीर को उनके घरों तक पहुंचाए जाने की व्यवस्था को देखते हुए अपने साथियों को याद करके आया था.
वो साथी जो साथ उठे, बैठे, खाये, हँसे, बोले और फिर एक दिन अनजान दिशा से आयी गोली लगने से अनंत यात्रा पर चल दिए. सैकड़ों साथियों को अंतिम संस्कार तक नसीब नहीं हुआ था.
श्रीलंका की इस लड़ाई में भारत के 1500 से ज्यादा सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए थे. इस लड़ाई में इंटेलिजेंस पूरी तरह फेल रहा क्योंकि बिना तैयारी के एक दिन ये फैसला ले लिया गया और फ़ौज श्रीलंका चल पड़ी थी.
भारतीय सेना के नुक्सान की सबसे बड़ी जिम्मेदारी बिना सोचे समझे IPKF का गठन करके उसको जाफना भेज देना था.
इंटेलिजेंस को LTTE की ताकत, उसके नेटवर्क, उसके बिछाए लैंडमाइन, आदि का कुछ भी पता नहीं था, मौका ही नहीं लगा.. इस लड़ाई में MARCOS कमाण्डो भी शामिल थी… टैंक रेजिमेंट भी गयी थी… उस पर कभी बाद में…