लोग बहस करने में लगे हैं कि मोदी सरकार के तीन वर्ष के शासन की उपलब्धियाँ क्या हैं. जैसी कि हमारी पुरानी परम्परा है, ऊपर ऊपर की बातों में लोग उलझे हैं, मौलिक बात पर कम लोगों ने ध्यान दिया है.
इन तीन वर्षों में इस देश में सत्तर वर्षों से स्थापित, स्वघोषित और स्वप्रमाणित अवधारणाएँ धीरे धीरे टूट रही हैं. माईबाप, बंदरबाँट व्यवस्था की चूलें हिल रहीं हैं, आत्मनिर्भरता की रौनक़ बढ़ रही है. भिखमंगेपन और रोहारोहट की खेती पर आधारित झूठे समाजवाद की पोल खुल रही है.
झूठी बौद्धिकता की पुरानी शराब के नशे में मदमस्त घमंडी फर्जी बुद्धिजीवियों के चेहरे बेनक़ाब हो रहे हैं. विदेशनीति और रक्षानीति का झूठ के नशे से फैला तिलस्म – हम शान्तिप्रिय हैं, हम रक्षा उपकरण देश में नहीं बनाएँगे, औरों से ख़रीदेंगे, हम फ़िलस्तीनियों की लड़ाई लड़ेंगे – टूट रहा है.
झूठी सेकुलरता के क़िले में सेंध लगी है – कोई सोच सकता था कि मौलवी तीन तलाक़ के मुद्दे पर चौराहे पर बेइज़्ज़त किए जाएँगे या कोई भगवावस्त्रधारी साधु देश के सबसे बड़े प्रदेश का मुख्यमंत्री बनेगा या गोरक्षा के मुद्दे पर बीफ पार्टी जैसी चीज़ों का आयोजन कर हिन्दुओं और भारत का मुँह चिढ़ाने वाली ताक़तें चुप होने पर बाध्य होंगी और गली गली बेइज़्ज़त होंगी? या इस्लामी भयादोहन और ब्लैकमेल का क़िला भरभरा कर गिर जाएगा? या कि जातपांत के साँप की जकड़ ढीली पड़ेगी?
यह बहुत बड़ा ढाँचागत बदलाव है. बहस के reference points, framework बदल रहे हैं. अब एजेंडा वे तय नहीं करेंगे जो सत्तर सालों से करते आए हैं. इस बदलाव की नींव अभी पक्की नहीं है. पर दस वर्ष यूँ ही चला तो पक्की हो सकती है.
ये बहुत बड़े सामाजिक और राजनीतिक, और सबसे बड़ी बात – मनोवैज्ञानिक – परिवर्तन के संकेत हैं जिनकी अनदेखी पूर्वाहग्रस्त अंधे या दिमाग से पैदल हड़बड़ाए लोग ही कर सकते हैं.
पर एक बात मानूँगा. मोदी देवदूत नहीं हैं. देवदूतों की फ़ैक्टरी का पता आपको पता हो तो देश को ज़रूर बताएं.