तो तय रहा इस पीढ़ी के बाद मुसलमान नहीं करेंगे ‘जाहेरथान’ पूजा!

जाहेरथान पूजा ‘जाहेर’ देवी के लिए किया जाता है… जिसका स्थान सखुआ (साल) के पेड़ से घिरे स्थान में होता है. और इसलिए ही उस स्थान को ‘जाहेर स्थान या जाहेरथान’ कहते है…

जाहेर देवी सर्वोच्च देवी में आती है… हरेक गाँव में जाहेरथान मिल जायेंगे… सरहुल की पूजा भी जाहेरथान में होती है…

और जाहेरथान पूजा गाँव में मौजूद लगभग सभी जाति के लोग करते है… महतो, मांझी, तुरी, कुम्हार.. यहाँ तक की मुसलमान भी…

थोड़ा अचम्भा लगा न… मुसलमान भी जाहेरथान पूजा करते हैं. .. जाहेरथान पूजा में बकरे की बलि होती है…

अब जाहेरथान पूजा जोल्हों के करने का कारण??? कारण यही कि ये भी आज से 400-500 साल पहले हमारे ही बंधु-बांधव तो थे…

इनके बाप-दादा, पूर्वज बड़े धूमधाम से जाहेरथान पूजा करते थे… तो इनकी संततियों ने भी इस चीज को आगे बढ़ाया…

मुसलमान हुए तो क्या हुआ… हम अपनी बाप-दादा की चीज को क्यों छोड़े? और इसने आगे बढ़ाया भी…

हमारे गाँव में हरेक पाँच साल में जाहेरथान पूजा होती है, जिसमें गाँव के सभी वर्ग के लोग सम्मिलित होते हैं…

लेकिन पिछले के पिछले जाहेरथान पूजा में जोल्हों ने टांग अड़ा दी… बोले कि अब हम जाहेरथान पूजा नहीं करेंगे.. ये हमारे इस्लाम में मनाही है, हराम है…

बेजोड़ बवाल हुआ… पंचायत बैठी और निर्णय हुआ कि जो जोल्हे अब तक ये पूजा करते आ रहे थे वे अचानक क्यों नहीं करने को कहने लगे…

क्या तुम्हारे पहले से तुम्हारे बाप-दादा जोलहा होते हुए भी जाहेरथान पूजा नहीं कर रहे थे क्या… क्या वे सभी अब तक हराम करते रहे? तुम्हें ये पूजा करनी ही पड़ेगी…

सभी ने भी इसका समर्थन भी किया… जिसके आगे जोल्हों को झुकना पड़ा… फिर जोल्हों ने अपना पक्ष रखा कि हाँ, हम जाहेरथान पूजा करेंगे लेकिन जाहेरथान में बकरा हलाल नहीं करेंगे.. वहां चेरायेंगे लेकिन हम घर आकर उसका हलाल करेंगे…

तो इस बात पे सहमति बनी और जाहेरथान पूजा में जोल्हे अब भी आ रहे है… बाकि घर में जाकर ये जोल्हे बकरे का हलाल कर रहे है या नहीं कर रहे है इसकी पुष्टि अभी तक नहीं हुई है.

बाकि ये पक्का है कि इस पीढ़ी के बाद वे जाहेरथान पूजा नहीं करेंगे.

अब ये हलाल-हराम… मोमिन-काफ़िर, कुफ़्र-शिर्क तक पता न चला जब तक ये मौलवियों से दूर थे… या यूँ कहे कि गाँव में मदरसे की स्थापना नहीं हुई थी… जैसे ही मदरसा खुला ये इस्लाम से रु-ब-रु होने लगे… और बहुत अच्छे से फर्क समझने लगे…

आज जै मीम, जै भीम का नारा चल रिया है… मूलनिवासी हिंदुओं पर दिन रात खजेले कुत्ते की तरह गरियाते रहते हैं… मियां जोल्हा इन्हें अपने सहोदर भाई से भी ज्यादा प्यारा लगता है…

अगर मान भी लें कि हिन्दू पांच हजार वर्ष पूर्व आये भी तो आपके अपने रीति-रिवाज, पर्व-त्यौहार, देवी-देवता के साथ कितना छेड़छाड़ किये… हम अपने पर्व-त्यौहार देवी देवता वैसे ही पूज रहे हैं व मना रहे हैं…

वहीँ हमारे ही भाइयों को जोल्हा बने 500 बरस न हुआ है कि सब भूल बैठने को आतुर बैठे हुए है.. बल्कि तुम्हें भी निगलने को तैयार बैठे हुए हैं…

आज जितने भी इस्लामिक मुल्क है वहां भी कभी न कभी हमारे जैसे ही लोग थे, कबीले थे, उनकी अपनी विशिष्ट संस्कृति थी, पहचान थी, अस्तित्व था.. लेकिन आज वे कहाँ हैं?

कहते है इस्लाम सबका सम्मान करता है, पूर्वजों का सम्मान करता है… तो फिर सम्मान ही रहता तो वहां से वो विशिष्ट संस्कृति आज भी दृष्टिगोचर होती… कहाँ गए वो सब?

क्या तुम अब भी उम्मीद करते हो कि जोल्हे तुम्हारी संस्कृति का बहुत आदर करते हैं? वे हमारी संस्कृति को बचाये रखने में हमारी मदद करेंगे? मिटा दिए जाओगे… और जो ऐसा अब भी सोचते हैं, वे हमारी नजरों में महामूर्ख हैं.

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