16 मई 2014… बीस वर्षों में वह दूसरा अवसर था जब देश की जनता ने बहुत विश्वास और अपेक्षाओं से शासन की बागडोर एक ईमानदार, सक्षम, सनातन परंपराओं से जुड़े परिवार बंधनों से मुक्त स्वयंसेवक को सौंपी.
एक ऐसे देश के लिए, जो लगभग हज़ार वर्षों की गुलामी और सतत संघर्ष से निकलकर एक भ्रष्ट, हिन्दू द्रोही तंत्र के हाथ में जा गिरा हो और पिछली दो पीढ़ियों से आशा की एक किरण नहीं देखी हो, यह सिर्फ बड़ा अवसर ही नहीं, अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि भी है.
अंग्रेजों के समय से राष्ट्र के मानस को रुग्ण करने का जो उपक्रम शुरू हुआ था, वह आज़ादी के बाद ना सिर्फ चलता रहा बल्कि ज्यादा उग्र और प्रभावी हो गया.
हमारी शिक्षा मनोबल तोड़ने वाली और राष्ट्र चेतना से विमुख करने वाली रही, इतिहासलेखन विघटनकारी और पत्रकारिता राष्ट्रद्रोही. राजनीति भ्रष्ट और अवसरवादी से लेकर भ्रमित…
इसके बावजूद हमने एक नहीं, तीन-तीन बार एक राष्ट्रवादी विकल्प को खड़ा किया और अवसर दिए. दो यशस्वी प्रधानमंत्री सत्ता में आये और लाल किले के प्राचीर से अब तक 9 या दस बार एक स्वयंसेवक ने ध्वज फहराया…
यह संभव कर पाना ही राष्ट्रीय भावनाओं की बहुत बड़ी जीत रही है… यह भी दिखाता है कि हमारी राष्ट्रीयता सभी प्रचारतंत्रों के द्रोह के बावजूद स्वतः स्फूर्त और स्वयंप्रेरित है.
इतना मार्ग हमने बिना किसी मार्गदर्शन के, बिना नेतृत्व के तय किया है… इसलिए यह आरोप नहीं मानूंगा कि हम हैं ही गए गुजरे… इसलिए हमें ऐसा शासन मिलता है.
अब जब जनता ने शासक चुन कर दे दिया है तो आगे शासक की जिम्मेदारी बनती है कि वे सही दिशा में देश को ले चलें.
जनता की भी जिम्मेदारी बनती है कि अगर दिशा सही हो तो उस नेतृत्व को और अवसर दिया जाए.
यहां आवश्यकता है कि हम जनता और नेतृत्व, दोनों के कार्यों और परिणामों के दायित्व की समीक्षा करें.
वाजपेयी जी के सात सालों और अभी मोदी जी के तीन सालों की समीक्षा करें, तो दोनों में एक साम्य है – दोनों ही शासन काल अपने पूर्ववर्तियों से बहुत ही बेहतर रहे हैं.
पहला, दोनों प्रधानमंत्रियों की नीयत पर शक नहीं किया जा सकता. दोनों के शासन में शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार के कोई मामले नहीं आये. दोनों ने देश को साफ सुथरा प्रशासन दिया और आर्थिक, रक्षा और विदेश नीति के मामले में अच्छे निर्णय लिए.
पर कुल मिला कर अच्छे निर्णयों के बावजूद देश ने वाजपेयी जी को अगला मौका नहीं दिया. वहीं उससे कई गुना बुरे कांग्रेस शासन को दो मौके मिले.
यहाँ देश की जमीनी राजनीति के दो महत्वपूर्ण पहलू स्पष्ट होते हैं… कांग्रेस या अन्य देश विरोधी शक्तियों का समर्थन उनके अच्छे बुरे कार्यों पर निर्भर नहीं है, बल्कि देश को क्षति पहुंचा पाने की उनकी क्षमता के बदले में मिलता है.
वहीं भाजपा का समर्थक कुछ विशेष सकारात्मक परिणाम चाहता है और वह नहीं मिलने पर निराशा की स्थिति में निष्क्रिय हो जाता है. वह खुद ही विपक्ष की भूमिका में उतर आता है.
यह रणनीति दबाव बना कर नीतियों में परिवर्तन का प्रयास करने तक तो ठीक है, पर रोष में सचमुच सरकार गिरा कर देशद्रोही तत्वों के हाथ में सत्ता दे देने की स्थिति तक तो नहीं जानी चाहिए.
पर इतनी अपेक्षाओं के साथ चुनी गई अपनी ही राष्ट्रवादी सरकार से उसके ही समर्थकों की निराशा या उदासीनता का क्या कारण है? जब कि हम इस विषय पर एकमत हैं कि ये दोनों ही सरकारें अपने पूर्ववर्ती सरकारों से कई गुना बेहतर हैं…
यहाँ राष्ट्रवादी समर्थकों की अपेक्षा का प्रश्न है… आपने क्या समझा है? हम आपसे क्या अपेक्षा रखते हैं?
क्या आप पहले से चले आ रहे जीर्ण शीर्ण तंत्र को सिर्फ पहले से थोड़ी सी अधिक कुशलता से चलाएंगे और संतुष्ट रहेंगे? या रोग का निदान और उपचार करने की दिशा में बढ़ते नज़र आएंगे?
मनमोहन सिंह की सरकार को दो बार बहुमत मिला इस लिए आपको उससे बेहतर शासन चलाने के लिए अपने आप एक मौका मिल जाना चाहिए?
याद रखें, मनमोहन को जिन्होंने चुना था, मनमोहन ने उसकी अपेक्षाएं पूरी कीं. आते ही आतंकवाद विरोधी कानून को हटाया, आतंकवाद को खूब फलने फूलने के अवसर दिए, मिशनरियों को ज़हर फैलाने का पूरा प्रोत्साहन दिया, चोरों को लूट खसोट की पूरी छूट दी.
उसका पुरस्कार उन्हें मिला… अपने कोर सपोर्ट बेस से पूरा समर्थन मिला. सौभाग्य से उनका गणित गड़बड़ा गया और हमने उन्हें उखाड़ फेंका और आपको सत्ता दी.
अब आपसे हमारी अपेक्षाएं सिर्फ यही नहीं हैं कि आप वह सब नहीं कर रहे जो कांग्रेस कर रही थी… बल्कि यह है कि आप उन सभी बीमारियों का निराकरण करें जो कांग्रेस छोड़ कर गयी है.
आपके लिए मापदंड कुछ और हैं. आपको सिर्फ पहले से चल रहे तंत्र को पहले की दिशा में नहीं चलाते रहना है. सिर्फ फाइलें नहीं निबटानी हैं. आपको आतंक के मूल का नाश करना है, मिशनरियों के जाल को तोड़ना है, शिक्षा को वामियों से मुक्त कराना है…
आपको देश के मानस को वह दिशा देनी है जहाँ से जनता के निर्णय देशहित में हुआ करें, देशद्रोही शक्तियों का प्रतिकार हो सके. ये सारे काम जनता स्वतः ही नहीं कर सकेगी. यह शासन का दायित्व है…
ये सारे काम रातों रात तो नहीं होंगे, लेकिन इस दिशा में गंभीरता दिखाई पड़नी चाहिए. संभव है, आप यह खुला युद्ध करने में अपने आपको आज सक्षम नहीं पा रहे हों, लेकिन आपको अपनी सेनाओं की पहचान तो होनी चाहिए.
जनता को अपना सेनापति दिखाई तो देना चाहिए… और यह विश्वास जीतना और बनाये रखना नेतृत्व का काम है, अपनी सेनाओं से कम्युनिकेशन बनाये रखने की जिम्मेदारी आपकी है. आप न्यूट्रल रेफ़री नहीं हैं, हमारी टीम में हैं, इसमें तो शंका नहीं होनी चाहिए…
तीन सालों में बहुत कुछ हुआ है… पहली बात, वह नहीं हुआ है जो काँग्रेस के समय में सरकारें सक्रिय रूप से करती थीं… यानि देश को तोड़ने की व्यवस्था. पर बहुत कुछ नहीं हुआ है… जो पहली प्राथमिकता के साथ होना चाहिए था… देश के अंदर सकारात्मक संवाद स्थापित करना और विघटनकारी संवाद करने वाले तत्वों को निर्ममता से कुचलना…
दो वर्ष का समय है… बल्कि एक वर्ष ही कहिए… आखिरी वर्ष में तो पहले चार वर्षों के काम का लेखा जोखा देना ही चलेगा… हमें अपनी अपेक्षाओं को पूरा करने वाली सरकार चाहिए…
विकल्प हमारे पास भी नहीं है, आपके पास भी नहीं है, और देश के पास भी नहीं है. दबाव बनाए रखेंगे… सही दिशा और गति बनाये रखने का दबाव…
पर याद रहे, हम विपक्ष नहीं हैं… हम और आप एक ही टीम हैं…यह हमारी ही सरकार है और हमें इसी से काम निकलवाना है.