जब भी कोई हिन्दू इस्लाम का कोई घृणास्पद पहलू दिखा देते हैं, और वह भी कुरआन की आयतों में, तब मुसलमान उन पर आक्षेप करते हैं कि आप संदर्भहीन बात करते हैं, यह तो उस समय के लिए लिखा गया था, इसका संदर्भ उस समय का प्रसंग है, आज ये लागू नहीं होता.
आइये संदर्भ हीनता – गलत पसमंजर – out of context के आरोप की बात करें, क्या आरोप लगाया जाता है हम लोगों पर ?
उनका सब से पहला आरोप तो यही होता है कि आप कुछ नहीं जानते क्योंकि आप मुसलमान नहीं हैं.
अगर आप साबित कर दें कि वस्तुस्थिति इसके विपरीत हैं, और मुसलमान न होने के कारण ही हम जानते हैं क्योंकि हम जिज्ञासा लिए हैं, श्रद्धा हमारी मजबूरी नहीं, तब ये कहेंगे कि आप ने पढ़ा नहीं है कि इस आयत का संदर्भ क्या है, ये किस प्रसंग में उतरी थी.
ये इनका trap (फांसने का जाल) होता है, इसमें कभी न आईएगा. एक फिरके का मुसलमान आप को एक हदीस का संदर्भ देगा, अगर आप उसे काउंटर कर देंगे तो दूसरे फिरके का मुसलमान आप को कोई और हदीस का संदर्भ देगा.
ये मामला ऐसा कर देंगे जैसे एक धारा के साथ दूसरी धारा के पांचवे अनुच्छेद के आठवें परिच्छेद के साथ पढ़िये और इन सब को इस हाई कोर्ट की फलानी जजमेंट के तीसरे परिच्छेद के पाँचवे अनुच्छेद के साथ पढ़िये.
आप घूमते रह जाएँगे, जो कि ये चाहते हैं. आप का दिमाग चकरा जाएगा तो दयायुक्त हंसी हँसकर बताएँगे कि आप को और बहुत पढ़ना चाहिए… हो गए आप हलाल!
इसलिए आयत से हटिएगा नहीं. बहुत तर्जुमे मिलते हैं ऑनलाइन, वे भी मुसलमान मौलनाओं के, तो तौहीन की कोई बात नहीं हो सकती, कंपेयर कीजिये, और अपनी बात पर डटे रहिए.
आप को पूर्वाग्रहदूषित, नफरत फैलानेवाले वगैरह विशेषणों से बदनाम करने की कोशिश की जाएगी, लेकिन इन्हें सुनने की तैयारी पहले से ही होनी चाहिए.
अब पते की बात पर आते हैं.
अगर आप ऐसे तथ्य निकालते जाएँगे जिनके लिए इनका यही घिसा-पिटा-रटा हुआ जवाब होगा कि यह तब के लिए था, एक विशिष्ट परिस्थिति के लिए था, तो आप पाएंगे कि अगर उन बातों को निकाल दिया जाय तो मौलिक बहुत कम बचेगा जो अन्य धर्मों में पहले से मौजूद नहीं था.
और इतना तो हरगिज नहीं होगा जिसके लिए इस्लाम के शुरू से आज तक खून से सने इतिहास का समर्थन किया जा सके.
जब आप खुद इस नतीजे पर पहुंचेंगे तो उसके बाद आप किसी शरीफ व्यक्ति की इज्जत कर सकते हैं, लेकिन हमेशा आप यही सोचते रहेंगे कि ऐसा व्यक्ति अभी तक मुसलमान क्यों रहा है.
फिर जब आप इस्लाम छोड़ने की कीमत को समझेंगे तो आप के मन में उसके लिए करुणा का भाव भी आ सकता है क्योंकि पीड़ितों पर दया, धर्म का मूल है.
आप यही सोचेंगे कि यह तो मेरा भाई है, बस एक बाहर से आई ज़हरीली विचारधारा ने बीच में खाई बनाई है.
फिर भी हमेशा सावधान रहिए. दया धर्म का मूल है, दगा मज़हब का. कम से कम हुदैबिया की सुलह का अध्ययन कीजिये.