हिन्दी सिनेमा के एक बड़े सितारे विनोद खन्ना की अब स्मृति शेष हैं. सोशल मीडिया में तमाम उत्साही, बौराये और मूर्ख किस्म के व्यग्र लोगों ने उनको महीने भर पहले से ही परलोक भेज दिया था.
यह तो था कि वे गम्भीर रूप से बीमार थे जिसकी परिणति अन्ततः मृत्यु हुई लेकिन उसके अगले दिन ट्विटर पर अभिनेता ऋषि कपूर ने जिस तरह से दो-एक लोगों को आड़े हाथों लेते हुए इस बात को शिद्दत से उठाया कि विनोद खन्ना के अन्तिम संस्कार के समय ऐसे बहुत से लोग दिखायी नहीं दिये जिनके साथ विनोद खन्ना का लम्बा जुड़ाव रहा है या जिनके साथ विनोद खन्ना ने ज्यादातर काम किया है.
इस बात को ज्यादा तूल देने का कोई अर्थ इसलिए नहीं था कि हमारे सितारों की आँखों में प्रायः एक बड़ा सा काला चश्मा चढ़ा रहता है जिससे वे अपने सारे भाव छिपाये रहते हैं. सार्वजनिक रूप से उनकी उपस्थिति इसी बड़े से काले चश्मे के साथ हुआ करती है जिससे कुछ भी जाहिर नहीं होता. वे बाकायदा सफेद परिधान का चयन करते हैं या ऐसे अवसरों के लिए तैयार करके रखते हैं और अपने आपको पूरी तरह आवरण में लपेटकर चुनिन्दा या तयशुदा घटनाओं या हादसों में उपस्थित होकर अपनी संवेदना प्रकट करने का अभिनय करते हैं.
विनोद खन्ना एक बड़े सितारे थे. आखिरी समय तक अच्छे काम की कमी उनको कभी नहीं रही. उनका मान-सम्मान भी बहुत था क्योंकि सम्बन्धों के मामलों में वे निर्विवाद रहा करते थे. तब भी उनके संगी साथी, सहकर्मी नहीं जुटे, यह बात उस निर्मम सत्य की ओर इशारा करती है जिसका आदी मुम्बइया सिनेमा समाज लगभग पचास सालों में खूब हो गया है.
यहाँ अब सारे रिश्ते संवेदना से उठकर लाभ-हानि के हो गये हैं. आपस में एक-दूसरे की जरूरत या वक्त तभी तक है जब तक आप लाभ देने के योग्य हैं. आपसे हानि उठाकर आपको कोई सिर पर बैठाकर नहीं रखेगा. ऐसा दिल बहुत कम लोगों का होता है.
एक घटना की बात सिनेमा जगत के इतिहास में दर्ज है जिसमें लव एण्ड गॉड में काम करते हुए अभिनेता गुरुदत्त नहीं रहे थे तब शोकाकुल माहौल में निर्माता के आसिफ से कान में किसी ने पूछा था कि आपका तो बड़ा नुकसान हो गया, इनके चले जाने से तब जानते हैं आसिफ का जवाब क्या था, आपको शर्म आनी चाहिए, ऐसे वक्त यह बात कर रहे हैं जब मेरा एक अच्छा दोस्त मुझे छोड़कर चला गया. वे सज्जन आसिफ के जवाब से हतप्रभ रह गये थे.
फिल्मी दुनिया में कलाकारों की मृत्यु पर संवेदना प्रकट करने जाना साथी सितारों के लिए एक अलग तरह की जद्दोजहद का काम होता है. ज्यादातर लोग शूटिंग पर हुआ करते हैं. ज्यादातर लोग शूटिंग जारी रखते हैं. कुछ संवेदना में अपनी शूटिंग निरस्त करते हैं तो कुछ चुपके से अपना काम पूरा करना चाहते हैं वरना दिन भर का नुकसान कौन भुगतेगा.
ज्यादातर लोगों को चौथे की प्रतीक्षा रहती है. उस दिन सबका जाना, एक तरह से सबसे मिलने जैसा ही होता है और शोकाकुल परिवार का दुख जरा-बहुत कम भी हो जाता है. कितनी ही घटनाएँ इस रंगीन संसार की कृपणता की बात सामने लाती हैं.
अभिनेत्री कुक्कू से लेकर, अभिनेता भगवान और इधर दिनेश ठाकुर से लेकर राममोहन और ओमपुरी और विनोद खन्ना तक सैकड़ों किस्से होंगे. जब शक्ति सामन्त नहीं रहे थे तो इस बात को ध्यान से देखा गया था कि राजेश खन्ना उनकी अन्तिम यात्रा में शामिल नहीं हुए थे, शायद चौथे में भी नहीं.
अभिनेता और बड़े अच्छे गीतकार स्वर्गीय गुलशन बावरा को कौन नहीं जानता. उनसे आत्मीय अपनापन था. वे कैंसर की बीमारी का शिकार हुए. उनके बच्चे नहीं थे, पत्नी अंजु के साथ उनका सुखमय जीवन था. वे बड़े संवेदनशील थे. अपने आसपास फिल्मी दुनिया के चलन और उसके नकलीपन से वे बहुत व्यथित रहते थे.
जीवन के आखिरी समय तक उन्होंने पत्नी को नहीं बताया था कि वे अपनी देहदान कर चुके हैं लेकिन वे यह जरूर कहते थे कि मेरा चौथा मत करना. मैं नहीं चाहता कि मेरे मरने के बाद वे चार लोग आकर झूठी हमदर्दी जतायें तो मेरे कभी अपने नहीं रहे. ऐसे निर्णय करने वाला शख्स निश्चित ही अपने संसार को बेहतर जानता था.
वास्तव में यह हमारे समय और संसार की ऐसी गिरावट का यथार्थ है जिसमें रचनात्मक और सर्जनात्मक समाज के लोग यह सब कर रहे हैं, वे लोग जो परदे पर कितनी तरह की भूमिकाओं में बंधते हैं, आपस में दिखावे के लिए अपनापन बखान करते हैं, दुख-सुख और तकलीफों में गलदश्रु बहाने वाले गाने गाते हैं, पता चला शॉट खत्म हो जाने के बाद एक-दूसरे की सूरत देखना नहीं चाहते या एक-दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते. न जाने हम जब ऐसे आज की बात कर रहे हैं तो आने वाले कल क्या होगा?