चुनाव नजदीक आते हैं तो सत्तारूढ़ पार्टी की असफलताएँ गिनाई जाती हैं. सफलताओं को भी हल्का बताया जाता है. अक्सर वामपंथी कुछ ज्यादा आक्रोश करने लगते हैं, कभी लोग उनके झांसे में आ जाते हैं, कभी उन्हें पहचान लेते हैं और इगनोर कर देते हैं.
एक साधारण सभ्य समाज में यह आम बात है. लेकिन जब समाज को साधारण, सभ्य न रहने दिया जाये तो ?
ट्रम्प के चुनाव में अमेरिकन वामियों ने वहाँ के हिसाब से काफी हदें पार कर दी थी – वो एक महिला का भरे रास्ते पर मल विसर्जन करना याद होगा – जिसके कारण जिस दिन ट्रम्प ने सूत्र हाथ में लिए उस दिन अभूतपूर्व सेक्यूरिटी लगाई गयी थी.
बाद में वहाँ की यूनिवर्सिटीज़ के कुछ आपे से बाहर होते डिपार्टमेंट्स के फंड्स सुखाये गए तब उनका RR काफी था. सरकारी बजट के 1% से भी कम खर्चा हो रहा है इस पर.
वो भी बंद करके ट्रम्प अमेरिका के प्रगतिशीलता को सन्निष्ठ संस्कृति की कभी न भर पाने वाली क्षति कर रहे हैं, इस टाइप का RR किया था.
दया न करें, अगर आप से कोई कहें कि चार-पाँच खसखस के दानों जितना सायनाइड खा भी लीजिये, खा लेंगे?
बात यहाँ की है. जो ताक़तें ट्रम्प के विरोध में थी, यहाँ भी वही ताक़तें भारत विखंडन में लिप्त हैं. कुछ लोकल राक्षस भी हैं.
यहाँ केवल अधूरे वादों को याद करा कर काम नहीं हो रहा. अब दंगे, जातीय सेनाएँ आदि खड़ी की जा रही है, मीडिया उन्हें अवास्तविक कवरेज देने में लिप्त है ताकि भय का माहौल बने.
सुनियोजित हत्याकांड, लूटपाट, दंगे, बलात्कार आदि सब कुछ पहले की तर्ज पर चलाया जा रहा है कि लोगों को संदेश मिले कि यह सरकार तुम्हें गब्बर से नहीं बचाएगी, गब्बर से तुम्हें गब्बर ही बचा सकता है. जो वो कहे वो करो.
इन ठाकुरों के हाथ कटे तो नहीं हैं, लेकिन अब तक निर्भय हो जाने के बजाय निर्भया होने का ही डर सता रहा है. पाली हुई फौज आक्रोश कर रही है कि ठाकुर, हम हिजड़े नहीं हैं.
असमंजस की स्थिति है और एक विकल्पहीनता की भी, जो अधिक पीड़ादायक है. मानो शहर में और कोई डॉक्टर ही नहीं ऑपरेशन के लिए और दूसरी जगह जाने के सभी साधन उपलब्ध नहीं.
डॉक्टर पर विश्वास रखना अनिवार्यता बन जाती है. जब अपने मन से डॉक्टर पर विश्वास किया जाता है, रोगी के ठीक होने की संभावनाएं बढ़ती है.