दान – as defence

दान की जो भी व्याख्याएँ हैं मेरी परिकल्पना उनसे अलग है, किन्तु आज के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में है. सब से पहले यह देखना चाहूँगा कि हम दान कब करते हैं.

ख्याल रहे, ‘कब’ करते हैं यह सवाल है, ‘क्यूँ’ करते हैं यह सवाल नहीं, क्यूँकि ‘क्यूँ’ के उत्तर कई मिलेंगे. ‘कब’ का उत्तर साधारणत: यह मिलेगा कि जब कुछ spare (अतिरिक्त) धन हो और दान की इच्छा हो.

अगर हम यह सोच बना लें कि हमें हिन्दू अर्थ व्यवस्था को मजबूत बनाना है तो उसके प्रति हर योग’दान’ के मौके देखिये. एक बहुत ही सादा और रोज़मर्रा का उदाहरण देता हूँ.

अगर आप ने किसी हिन्दू के दुकान से कोई चीज खरीद ली तो आप ने हिन्दू अर्थव्यवस्था में योगदान दिया. हो सकता है कि उसके कंपीटीशन में किसी विधर्मी ने वही चीज सस्ती लगाई हो, जानबूझ कर कुछ समय के लिए नुकसान उठा रहा हो ताकि हिन्दू की दुकान बंद हो जाये – और आप यह जानते हैं कि अपने समाज की आर्थिक सहायता पा कर वे ऐसे कर सकते हैं.

अगर आप ने सस्ते भाव के लालच में वहाँ से खरीद लिया तो एक हिन्दू का व्यावसायिक इकाई (business unit), जो प्राय: उसके अपने परिवार के अलावा और भी परिवारों के निर्वाह का साधन हो सकता है, एक दिन बंद हो जाएगा.

इन के बारे में आप या हम क्यूँ सोचें… इस पर बाद में विचार करते हैं, फिलहाल यह मुद्दा बस नोट कर रखें. बस एक बात का ध्यान रखिए कि इस से सक्षम हिन्दू की संख्या में क्षति होती है.

आप ने शायद नोटिस किया होगा, कि कई ऐसे व्यवसाय जो पहले हिंदुओं के हाथों में थे, अब वे नहीं कर रहे हैं और वे व्यवसाय मुस्लिम कर रहे हैं.

हिंदुओं ने क्यूँ छोड़ दिये इसके कारण आप देखेंगे तो पता चलेगा कि अक्सर उस व्यवसाय को ले कर उनको शर्म आने लगी, उनको यह अहसास हुआ कि वे शिक्षा और सामाजिक रुतबे से वंचित हैं, इतना ही नहीं बल्कि उन्हें जान बूझ कर शिक्षा और सामाजिक रुतबे से वंचित रखा गया है.

कैसे हुआ उन्हें यह अहसास? किसने कराया उन्हें यह अहसास? आप अक्सर इसमें वामपंथी पाएंगे जिन्होंने उनको यह अहसास कराया है कि वे वंचित हैं. उन्हें यह काम छोड़कर सरकारी नौकरी करनी चाहिए. उसमें आरक्षण मांगना चाहिए.

अब बाकी स्क्रिप्ट आप को समझ में आ गई होगी. समाज के एक सक्षम और योगदान देनेवाले घटक को इन्होने दान की लाइन में खड़ा कर दिया. देने वाले हाथ में कटोरा पकड़ा दिया.

साथ ही इनमें उर्वरित समाज के लिए नफरत भी भर दी, जो विपन्नता से आई विवशता के कारण और भी गहरी हो जाती है.

मेरे बात समझ में न आई हो तो एक उदाहरण देता हूँ – आजकल नौकरी का क्षेत्र काफी अस्थिर हो गया है.

अचानक नौकरी चली जाने से पूरे परिवार को कुछ समय के लिए जो कष्ट उठाने पड़ते हैं वे पूरे परिवार की मानसिकता बदल देने के लिए काफी होते हैं.

आकस्मिक विपन्नता से समाज में उनका मेल जोल कम हो जाता है और उस के साथ ही लोगों के बदले व्यवहार से समाज के प्रति नफरत सी बढ़ती है.

जानते हैं यह व्यवहार है, शायद वे भी ऐसे ही करते औरों के साथ; लेकिन जिस पर बीतती है उसकी सोच अलग बनती है.

मतांतरण वाले भी यही मौका तलाशते रहते हैं. यहाँ भी बाकी स्क्रिप्ट आप समझ ही गए होंगे.

और एक बात. जब समाज का बड़ा हिस्सा अपना पारंपारिक व्यवसाय त्यागता है तो जो टिके रहने की कोशिश करते हैं वे ज्यादा टिक नहीं पाते अगर मुसलमान उस धंधे में घुस आए तो. टिके रहने की कोशिश करने वाले जल्द ही उखाड़ दिये जाते हैं.

वामियों के लिए यही Cloward Piven थ्योरी है. समाज पर अनुत्पादक बोझ बढ़ाओ ताकि उसकी व्यवस्था ध्वस्त हो जाये. क्रान्ति के लिए यही सही समय होता है. हर एक की पद्धति अलग, लेकिन लक्ष्य एक.

John Donne की एक प्रसिद्ध कविता है, No Man Is an Island, जो For Whom The bell tolls नाम से भी प्रसिद्ध है. पेश है :

No man is an island entire of itself; every man
is a piece of the continent, a part of the main;
if a clod be washed away by the sea, Europe
is the less, as well as if a promontory were, as
well as any manner of thy friends or of thine
own were; any man’s death diminishes me,
because I am involved in mankind.
And therefore never send to know for whom
the bell tolls; it tolls for thee.

इसमें से इन पंक्तियों ने मुझ पर एक अमिट छाप छोड़ दी है – every man is a piece of the continent, a part of the main; if a clod be washed away by the sea, Europe is the less, as well as if a promontory were, as well as any manner of thy friends or of thine own were

हर मनुष्य महाद्वीप (देश) का हिस्सा है. अगर रेत का ढेला भी समुद्र में बहा जाये तो योरोप की भूमि उतनी कम होती है. समुद्र की लहर अगर तुम्हारे दोस्त की दीवार से टकराए तो यूं समझ लो कि तुम्हारी ही दीवार से टकराई हो, क्यूंकि उसके टूटते ही तुम्हारी बारी है.

यहाँ तक पढ़ने के लिए धन्यवाद. अगर आप सोच रहे हैं कि इसमें आप का दान क्या करेगा या किसी हिन्दू के दुकान से न खरीदने का इस से क्या ताल्लुक है तो उस मुद्दे पर ही आते हैं.

हर एक व्यवस्था का एक केंद्र होता है और उसके इर्द गिर्द परतें होती हैं. यह परतें ही उसका संरक्षण भी करती हैं. केंद्र का दायित्व है परतों का पोषण और परतों का दायित्व केंद्र का पोषण और साथ-साथ संरक्षण भी. जब परतें गिरने लगती हैं तो केंद्र उतना अधिकाधिक कमजोर, उतना अधिक भेद्य हो जाता है.

अरे, आप को यह बताना तो भूल ही गया. आप को वो NGO वालों की मुहिमें याद होंगी जहां उन्होंने भीख मांगने को सामाजिक अपराध ठहराया था? तो हममें से कईयों ने भीख देना बंद कर दिया. क्या हुआ उन सभी भिखारियों का? सब कोई रोजगार में लग गए या मर गए?

चर्च या दरगाह के बाहर कभी घूम आइये. पहचाने चेहरे मिल जाएँगे. और हाँ, भिखारियों के भी बच्चे होते हैं. और भी एक बात, इतिहास में कई प्रमाण मिलेंगे कि भिखारियों का उपयोग बतौर जासूस किया जा सकता है.

तो यह एक परत, हमने गिरा दी. या यूं कहिए कि हमारे शत्रुओं के लिए और एक दीवार हम ही ने बांध दी. हाँ, ये NGO वाले कौन होते हैं अक्सर?

बात दान -as defence से निकली थी. अगर हिन्दू अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाए रखना है तो मेरे हिन्दू भाइयों और बहनों, दो पैसे ज्यादा दाम देने को ही दान समझिए.

भक्त रहेंगे तो भगवान रहेंगे. भक्त एक-दूसरे को सक्षम बनाए रखें, भगवान का आशीर्वाद बना रहेगा.

समाज का समर्थ, सक्षम रहना ही भगवान का सब से बड़ा आशीर्वाद होता है इससे आप असहमत नहीं होंगे. दान से और क्या चाहते हैं आप?

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