अंडरवर्ल्ड पर राम गोपाल वर्मा ने सबसे ज्यादा फिल्में बनाई हैं. शिवा और सत्या बना कर अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित की तो ‘रामगोपाल वर्मा की आग’ और ‘नाच’ बनाकर ये सिद्ध किया कि उन्हें जो अच्छा लगेगा, बनाएँगे.
सत्या मुंबई के अपराध जगत पर बनी श्रेष्ठतम फिल्मो में शुमार की जाती है तो सरकार को आप सत्या का अगला बेहतरीन एपिसोड कह सकते हैं. सरकार-2 से उनकी पकड़ उनके पसंदीदा विषय पर ढीली होती चली गई.
आज सरकार का तीसरा भाग प्रदर्शित हुआ है. इस फिल्म के लिए वो कहावत सबसे सटीक बैठती है ‘बॉडी विदाउट सोल’. यदि अमिताभ बच्चन का सशक्त सहारा न होता तो सरकार का तीसरा संस्करण पहले ही शो में दम तोड़ देता.
दोनों बेटों के मरने के बाद सुभाष नागरे राजनीति में उतर कर जनसेवा कर रहा है. कहानी सरकार के पोते शिवाजी उर्फ चीकू की एंट्री के साथ आगे बढ़ती है. उसे गोकुल में उन गद्दारों के बारे में पता लग जाता है, जो गुपचुप तरीके से डॉन बनने की तैयारी में है.
यहां तक कि सत्ता के संघर्ष के लिए नागरे की चारदीवारी के बाहर भी गोविंद देशपांडे (मनोज बाजपेयी), सत्ता का भूखा और नेता बनने की इच्छा रखने वाले माइकल (जैकी श्रॉफ) और गांधी (बजरंगबली) जैसे लोग सरकार को बर्बाद करने के लिए अपना-अपना दांव लगाते हैं.
कहानी बेहद साधारण है लेकिन इसका स्क्रीनप्ले बेहतर लिखा गया था. ख़ास तौर से कहानी में जो अनसोचा ट्विस्ट लाया गया वो प्रशंसनीय है लेकिन जरा रुक जाइये. जितना बेहतर इस ट्विस्ट को लिखा गया, उतना ही घटिया इसका प्रस्तुतिकरण है. कमजोर अभिनेताओं के बल पर आप ‘डार्क सिनेमा’ में अपनी बात प्रभावी तरीके से नहीं कह सकते.
जब अमित साध जैसी अधपकी केरी को आप अमिताभ बच्चन जैसे विराट अभिनेता के सामने उतारेंगे तो वही होगा जो सरकार-3 में हुआ. फिल्म में सेकेण्ड लीड के लिए अमित साध जैसे अनुभवहीन अभिनेता को चुनकर रामू दादा ने बड़ी गलती कर डाली. ऊपर से भयानक मिस्कास्टिंग.
अमित साध क्या आपको गैंगस्टर परिवार के दिखाई देते हैं?… और ऊपर से उनकी अदाकारी भी ऐसी नहीं कि वे इस बात का यकीन दिला सके. रोनित रॉय बिलकुल बेअसर रहे. एक मनोज वाजपेयी ही अच्छा कर रहे थे लेकिन उनका किरदार बीच में ही ख़त्म कर दिया जाता है. यामी गौतम और रोहिणी हटंगड़ी से भी निर्देशक मनमाफिक काम नहीं ले सके.
अमिताभ बच्चन सुभाष नागरे के किरदार को नई ऊंचाइयों पर ले गए हैं. सत्तर पार अमित जी की अदायगी देखनी हो तो ही थिएटर का रुख कीजिये. सुभाष नागरे थक गया है लेकिन टूटा नहीं है. बेटो की मौत ने उसे पत्थर बना दिया है. ये सारी बाते उनके अंडरप्ले में झलकती है.
नि:संदेह अमिताभ इस वक्त अदाकारी के शिखर पर विराजमान है. मंदिर का दीपक बड़ी देर हवाओं से लड़ता है और फिर विजय प्राप्त कर स्थिर हो जाता है. अमिताभ का अभिनय कौशल उसी स्थिर लौ की मानिंद है. बिलकुल सधा हुआ, कम न ज्यादा, किरदार के मुताबिक.
अमिताभ को निकाल दिया जाए तो फिल्म कूड़े के ढेर के सिवा कुछ नहीं. साउथ की मसाला फिल्मों की तरह मुख्य विलेन आधी फिल्म में किसी खूबसूरत मॉडल के साथ यहाँ-वहां घूमता ‘फोन पर काम निपटाता है’. चेले-चपाटे यहाँ गेम बजाते हैं.
क्या ये राम गोपाल वर्मा का सिनेमा है. कतई नहीं. ये तो सफलता पाने के लिए किया गया ‘मसालाई प्रयास’ ज्यादा लगता है. जब आप अमित साध को फिल्म की सेकंड लीड के लिए चुनते हैं, दरअसल उसी वक्त फिल्म के भविष्य का निर्णय हो जाता है.