रोजमर्रा के ही किसी साधारण दिन जैसे कोलकाता की एक भीगती हुई दोपहर. मुसलाधार. इसी मुसलाधार में कोलकाता की भीगी सड़क पर कलकतिया हाथगाड़ी किसी घर के आगे रूकती है.
रेनकोट पहने हुए एक सकुचाया प्रेमी उतरता है. अपनी उस प्रेमिका से मिलने आज उसके घर छह साल बाद आया है जो उसे छोडकर किसी और से शादी कर चुकी है. दोनों को ही नहीं पता कि अब दोनों कैसे हैं.
दोनों के दिलों में रंज तो है पर जख्म नहीं. दोनों पराये हुए हैं पर शायद प्रेम नहीं. वो अभी तक यहीं है. कहीं गया नहीं. उसका अभी तक भी हरा होना नीयत नहीं, नियति है. प्रेम में लंबे संधिविच्छेद के बाद भी बीच -बीच में संभावनाओ का फिर से आकार लेना ही प्रेम की पगडंडी है.
प्रेम बंद हुई किताब का वो मोड़ा हुआ, अटकाया हुआ पन्ना होता है जिसे कभी ना कभी फिर से खुलना होता ही है. ये घोषित पूर्ण विराम के बीच जमा अघोषित अल्पविराम जैसा होता है. प्रेम कहानियां कभी पूरी तरह से खत्म होती भी नहीं. प्रेम कहानियों के किरदार प्रेम को बिना शिफ्ट का बटन दबाए सिस्टम से डिलीट करते हैं. प्रेम मन के किसी रिसाईकल बिन में पड़ा फिर से मिल जाता है.
भीगे हाथ घर की बैल बजाते है. अंदर से आवाज आती है- कौन. जवाब- मनुज. भागलपुर से. मन्नू. रोशनदाने से दो ठंडी आंखे बिना किसी भाव को उतारे बाहर देखती है. दरवाजा खुलता है. मन्नू और नीरू की नजरें मिलती है और इस तरह समय के मोंटाज पर ठहरें दो साधारण किरदार छह साल बाद एक दूसरे की सुध लेने एक असाधारण दोपहर में फिर से मिलते है.
ऋतुपर्णा घोष के निर्देशन में सन दो हजार चार में आई क्लासिक कल्ट फिल्म रेनकोट का ये एक दृश्य है जिसमें उस बरसाती दोपहर में मिले इन दो पूर्व प्रेमियों की बातचीत यहां से शुरू होती है. फिल्म में मन्नू बने थे अजय देवगण और नीरू ऐश्वर्या राय.
ऐश्वर्या राय जैसे इस फिल्म में दर्ज है, और किसी भी फिल्म में नहीं. अजय तो हर फिल्म जैसे कमाल है ही. इस तरह के रोल में वो सिद्वहस्त है. आधी रात को नींद से उठकर इस तरह से किरदार में घुस सकते है. तो यहां असाधारण दोपहर में नीरू और मन्नू फिर से मिलें है और दोनो ऐसे जता रहे है जैसे कि अपनी जिंदगी से बहुत खुश है.
आई एम फाइन एण्ड एवरीथिंग इज आॅलराइट बातो में है जबकि हकीकत में दोनो ही पैसो की मारामारी में है. कर्ज में है. बातचीत खत्म होते होते दोनों को एक दूसरे के बारे मे ये सब पता लग जाता है कि सामने वाला किस हाल में है और फिर दोनों ही एक दूसरे को बिना बतायें एक दूसरे से छिपकर एक दूसरे की मदद करते है. मदद के बाद के लिखे पत्र में ये कहते हुए कि “माना कि हमारी शादी नहीं हुई पर इसका मतलब ये तो नहीं कि तुम्हे कोई तकलीफ हो और तुम मुझे बता ना सको.”
प्यार यहां अपने पुरे शुद्धतम स्वरूप में है. चौबीस कैरेट गोल्ड. आखिर प्यार का मतलब ही अपने प्रिय को बिना स्वार्थ सब कुछ देना होता है. उसकी खुशी के लिये अपने “स्व” को भूलना. अपने “ईगो” को दरकिनार करना. उसकी खुशी में अपना सब कुछ अर्पण कर देना.
प्यार और प्यार के प्रत्येक विच्छेद में ऐसी विनम्रता होनी चाहिए. ऐसी विनम्रता का होना लाजिमी है. ये विनम्रता ही फिल्म रेनकोट है. ये विनम्रता फिल्म के सबसे धारदार और मारक गाने में भी है. पिया तोरा कैसा अभिमान.
निर्देशक ऋतुपर्णा का लिखा और देवज्याति मिश्रा का संगीत. गुलजार की पोएट्री का गाने के बीच में अभिनव प्रयोग. पिया तोरा कैसा अभिमान. चार शब्दों की एक लाइन और उसमें छिपे प्रेम के ना जाने कितने रंग. दुख, मासूमियत, शिकायत, क्षोभ सब कुछ उतर आया इस एक लाइन में.
गीत के दो वर्जन है. एक गाया है शोभा मृदुगल ने और दूसरा हरिहरन ने. फिल्म में जब मन्नू को नीरू की बिना बताई गरीबी का पता लगता है तब वो घर को फिर से देखना शुरू करता है. पीछे चलते गीत में ऋतुपर्णा ने जो दृश्य लिये है, वो ऋतुपर्णा को बेहद खास श्रेणी में ला खड़ा करते है. गंदा बाथरूम, रसोई में कॉकरोच, सूखते फटे हुए अंतर्वस्त्र, मैले बरतन, कीड़े लगा पुराना खाना. उस नायिका की ऐसी गरीबी देखना बहुत मुश्किल जिसने अपने लिये कुछ अच्छा सोचा था पर जीवन में अच्छा हुआ नहीं.
हिन्दी फिल्मों में ये सब बहुत सतहीपन से दिखता है. ऋतुपर्णा उस दबी छिपी गरीबी की तह तक अपने कैमरे को ले गए जहां जल्दी से झांकने की हिम्मत किसी की नहीं हुई. गीत के बीच गुलजार की मारक पंक्तियां आती है खुद गुलजार की आवाज में. रिसते दुख को और हरा करने.
किसी मौसम का झोंका था, जो इस दीवार पर लटकी हुई तस्वीर को तिरछी कर गया है
गए सावन में ये दीवारें यूं सीली नहीं थी, ना जैसे क्यों इस दफा इनमें सीलन आ गई है/ दरारें पड गई है और सीलन इस तरह बहती है जैसे शुष्क रूखसारों पर आंसू चलते है.
फिल्म का क्लाईमैक्स ओ हेनरी की प्रसिद्व कहानी ‘द गिफ्ट आॅफ द मेगी‘ से प्रेरित होकर लिखा गया है और यकीन मानियें, यह क्लाईमैक्स हिन्दी सिनेमा के सबसे बेहतरीन क्लाईमैक्स में से एक है. वैसे भी ओ हेनरी की कहानियों के अंत ही उसकी कहानी को और ज्यादा आयाम देते है. कहने भर को इसे ओ हेनरी की कहानी माना गया पर ऋतुपर्णा ने कृष्ण-राधा को भी प्रतीको में कहानी का हिस्सा बनाया है.
कृष्ण अपने पूरे जीवन में डिप्लोमेटिक परंतु टेक्निकली राइट रहें पर राधा के प्रसंग मे कभी सही नहीं हो पाये. राधा के पूरे इंतजार में केवल कृष्ण थे पर कृष्ण के लिये राधा केवल याद के वातायन में खुलने वाली खिड़की भर रही. झांका तो देख लिया वरना कोई सुध ही नहीं. तभी तो धर्मवीर भारती की कनुप्रिया अपने कृष्ण से खीझकर कहती है-
“सुनो मेरे प्यार/प्रगाढ केलि-क्षणों में अपनी अंतरंग सखी को तुमने बांहो में गूंथा/ पर उसे इतिहास में गूंथने से क्यो हिचक गए/प्रभु ”
तो वही ऋतुपर्णा की राधा कहती है-
“अपने नयन से नीर बहाये/अपनी जमुना खुद आप ही बनायें
लाख बार उसमें ही नहाये/पूरा ना होई अस्नान
रूखें केश रूखे भेष/ मनवा बेजान
पिया तोरा कैसा अभिमान”
अगर आपने रेनकोट नही देखी है और पिया तोरा कैसा अभिमान को नहीं सुना है तो यकीन मानियें कुछ खूबसूरत अहसासों से आपने मिलने से मना किया है. सिनेमा और संगीत इसलिये भी होने चाहिए कि वो आपको अपने में तरबतर कर दें. आपको रूलायें. कुछ अहसास जगायें. आपको उस दुनिया में ले जायें जिसका हिस्सा आप कभी थे ही नहीं. आप ऐसे व्याकुल और व्यथित हो जैसे ये सब आपके साथ हुआ हो और नहीं हुआ हो तो अफसोस करायें कि ऐसा क्यो नहीं हुआ. सिनेमा सच में जादू है और ऋतुपर्णा घोष इस माध्यम के औेर जीवन की महीन संवेदनाओ के जादूगर थे.
(उनींदी आंखों से पार पाकर देर रात को अपनी सबसे पसंदीदा फिल्म को देखकर सुबह सुबह छलका मन.)
https://www.youtube.com/watch?v=IIcG70WJkS4