बाहुबली फिल्म की एक मुख्य पात्र देवसेना का किरदार भारत की उस गौरवशाली परंपरा का दर्शन है जहाँ हमेशा से आदर्श रूप में पुरुष से कहीं अधिक नारी प्रतिस्थापित रही है.
फिल्म में देवसेना द्वारा अभिनीत किरदार का कौन सा हिस्सा है जिसके बारे में कोई ये कहने का साहस कर सकता है कि नारी-अधिकारों को लेकर ये राजामौली की अति-कल्पनाशीलता मात्र है.
देवसेना एक विशाल राज्य माहिष्मती की ओर से आये विवाह प्रस्ताव को ठुकरा देती है, राजमाता शिवगामी देवी के राज्य में जाकर उनसे धर्मशास्त्रों का हवाला देते हुए पूछती है कि क्या आपको नहीं पता कि किसी कन्या के मर्जी के विरुद्ध उसके लिये वर चुनने का अधिकार किसी को भी नहीं है और वो स्वेच्छा से अपने पति रूप में बाहुबली का चयन करती है.
नारी द्वारा वर चयन का अधिकार बाहुबली के फिल्मकार की कल्पना नहीं है. याद कीजिये जब सावित्री के पिता अश्वपति अपनी पुत्री को एक स्वर्णजड़ित रथ देते हुए कहते हैं कि बिटिया तू अपने लिए अपने मनोनूकुल वर खोज ले.
सावित्री उस रथ पर बैठती है और पिता द्वारा दिए अनुचरों के साथ अलग-अलग राज्यों के राजकुमारों से भेंट करती है, उनका साक्षात्कार करती है पर उसे पसंद आता है एक राज्य-विहीन युवक.
यह युवक अपने माता-पिता के साथ वनवासी रूप में जीवन व्यतीत कर रहा है, जिसके पास खाने के लिये कंद-मूल छोड़कर और कुछ भी नहीं है. अश्वपति पुत्री की इच्छा का सम्मान करते हुए उसका ब्याह उस वनवासी युवक सत्यवान से कर देते हैं.
बाहुबली में देवसेना के भाई जो छोटे से राज्य के शासक हैं, उन्हें पता था कि माहिष्मती जैसे बड़े राज्य की ओर से आये विवाह प्रस्ताव को ठुकराने का अर्थ है संपूर्ण विनाश पर तब भी उनके लिये अपनी बहन यानि एक नारी की इच्छा के सम्मान से बढ़कर अपना राज्य भी नहीं था.
जो किरदार यहाँ देवसेना के भाई का है वही सावित्री के पिता अश्वपति का भी था. उनसे जब सावित्री सत्यवान से विवाह की बात कहती है तो वहां नारद भी होते हैं, नारद पिता को समझाते हुए कहते हैं कि सत्यवान अल्पायु है, उनसे बिटिया का विवाह किया तो वैध्यय सावित्री के सामने खड़ा है.
तब अश्वपति उसे समझाते जरूर है पर न मानने पर उस पर कोई जोर नहीं डालते बल्कि अपनी बेटी की इच्छा का मान रखते हुए उसे सत्यवान के साथ ब्याह देतें हैं.
हमने हमारी नारी को शिक्षित और संस्कारित दोनों किया, फिर स्वयंवर का अधिकार दिया. स्वयंवर की ये प्रथा हमारे लिए गौरव है, सावित्री और सीता से लेकर द्रौपदी तक इसके उदाहरण हैं.
विवेकानंद ने यूं ही नहीं हम हिन्दू पुरुषों से कहा था कि “मत भूलना कि तुम जन्म से ही माता के लिये बलिस्वरूप रखे गये हो, मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया की छाया मात्र है”.
मुग़ल काल में जब हमने अपने आप को बचाने के लिये और अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये इस मर्यादा का उल्लंघन शुरू किया और नारी को उसकी इच्छा के विरुद्ध मलेच्छों के संग बांधना शुरू किया हमारा अध:पतन शुरू हो गया.
हमारे धर्म में विदाई के समय कन्याओं के रोने का वर्णन नहीं मिलता, कहते हैं जोधा पहली कन्या थी जो विदा होते समय रोई थी. जोधा के क्रंदन ने हिन्दू जाति का भाग्य सूर्य भी अस्त कर दिया. नारी को पुनः उसके आदर्श पर प्रतिष्ठित करो भारत स्वयं जाग उठेगा.
जय माहिष्मती